SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाए और सग्रह-विसर्जन की यथार्थता के लिए ममत्व-विसर्जन का अभ्यास किया जाए। क्या कोई शरीरधारी ऐसा हो सकता है, जो शरीर को धारण करे और उसकी माग को पूरा न करे ? भोजन शरीर की आवश्यक माग है। उसे पूरा करना साधक के लिए भी अनिवार्य है। एक ओर शरीर की माग को पूरा करने का प्रश्न है तो दूसरी ओर उसके ममत्व (देहाध्यास) के विसर्जन का प्रश्न है। शारीरिक ममत्व का विसर्जन करने के लिए यह आवश्यक है कि साधक शरीर की अपेक्षा को पूरा करे किन्तु जितनी अपेक्षा हो उसे अविकल रूप से पूरा न करे। यह देह और आत्मा के भेदज्ञान की ओर प्रगति होने की व्यावहारिक कसौटी है। कषाय-व्युत्सर्ग अनुकूल स्थिति और इष्ट वस्तु का योग होने पर मनुष्य को सुख की अनुभूति होती है। प्रतिकूल परिस्थिति और अनिष्ट का योग होने पर उसे दुःख का अनुभव होता है। साधारण मनुष्य इसी सुख-दुःख के चक्र मे परिभ्रमित रहता है। सुख के आगे आनन्द नाम की कोई वस्तु है, यह प्रश्नचिह्न भी उसके मन मे नही उभरता। प्रतिकूल परिस्थिति और अनिष्ट के योग मे भी मनुष्य के आनन्द का प्रवाह अविच्छिन्न रह सकता है, यह कल्पना सामान्यत. नही हो सकती। किन्तु आनन्द उसी स्थिति का नाम है जो वाह्य के सयोग या वियोग के आधार पर घटित नही होती। ___हर मनुष्य के अन्तस् की गहराई मे आनन्द की असीम धारा प्रवाहित होती है किन्तु प्राणिक और मानसिक आवरणो से वह आच्छन्न है। मोह (कषाय) की राख से उसके अस्तित्व की लौ ढंकी हुई है, इसलिए उसका होना नही होने जैसा है। ध्यान आदि के अभ्यास से प्राणिक और मानसिक आवरण का विघटन करना काफी प्रयत्न-साध्य है। आत्मानुभूति की गहराई होने पर प्राणिक और मानसिक आवरण विच्छिन्न हो जाते हैं। आत्मानुभूति की गहराई जब निरन्तर हो जाती है, उस समय मोह की ग्रन्थि भी खुल जाती है और । मनुष्य सहज आनन्दानुभूति के रस मे परिप्लावित हो जाता है। मनोनुशासनम् / ६१
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy