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________________ किन्तु प्रसन्न होता है। ईर्ष्या नास्तिकता का चिह्न है। क्या आत्म-निष्ठ व्यक्ति आत्म-विकास पर एकाधिकार मान सकता है ? दूसरे के विकास को नकारने का अर्थ गुणों की श्रेष्ठता को नकारना है। यदि गुणो की अच्छाई मे हमारा विश्वास है तो वे किसी में भी प्रकट हुए हो, हमारे लिए अभिनन्दनीय है। इस चिन्तन की पुष्टि से मानसिक हर्ष निश्छिद्र और अव्यवच्छिन्न बन जाता है। कारुण्य भावना सुदूर क्षितिज मे बिजली का कौधना देखकर हमें वादलो के अस्तित्व का बोध हो जाता है। इसी प्रकार अन्त करण मे करुणा का प्रवाह देखकर हम जान पाते है कि अमुक व्यक्ति मे सत्य की जिज्ञासा है। उसे सत्य का कुछ साक्षात् हुआ है और उसका दृष्टिकोण समीचीन है। क्रूरता का विसर्जन किए बिना कोई भी आदमी सत्य की दिशा मे गतिशील नही हो सकता। इस अनुभूति की तीव्रता के द्वारा मनुष्य मे करुणा का सस्कार सुदृढ हो जाता है। माध्यस्थ्य भावना किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति अनुरक्त होने और उससे भिन्न वस्तु या व्यक्ति के प्रति द्विष्ट होने का अर्थ पक्षपात है। पक्षपात यानी विषमता। राग और द्वेष से होने वाले अन्याय के परिणामो को समझे बिना क्या कोई भी व्यक्ति मानसिक झुकाव से बच सकता है ? कोई व्यक्ति उन्मार्ग की ओर जा रहा है। उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करना कर्तव्य है किन्तु बल-प्रयोग के द्वारा उस कर्तव्य की पालना नही हो सकती। हृदय-परिवर्तन का प्रयत्न करने पर भी यदि सामने वाला व्यक्ति उन्मार्ग से विमुख नही होता है तो उसके लिए प्रतीक्षा ही की जा सकती है किन्तु क्रोध करके अपने मन को धूमिल और परिस्थिति को जटिल वनाना समुचित नही हो सकता। उलझन-भरी परिस्थिति व वातावरण मे अपने मानसिक सतुलन को बनाये रखने का अभ्यास करने, न्याय के प्रति दृढ निष्ठा होने तथा हृदय-परिवर्तन के सिद्धान्त मे आस्था होने से मध्यस्थता का सस्कार सुस्थिर होता है। ८६ / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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