SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० ] मुख कर जैसा लख तैसा, कपट प्रीति अंगारसी ।। नहि लहै लक्ष्मी अधिक छलकर, करमवंब विशेषता । भय त्यागि दूध बिलाव पोवै, आपदा नहिं देखता ॥३॥ ॐ ह्रीं उनमाजववर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा । कठिन वचन नत वोल, परनिंदा अरु भू तज । रांच जवाहर खोल, सतवादी जग मे सुखी ।। उत्तम सत्यवरत पालीज, पर-विश्वास-घात नहिं कीजै । साँचे भूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो। पेखो तिहायत पुरुष सांचेको, दरव सब दीलिये । मुनिराज श्रावक्रकी प्रतिष्ठा, सांचगुन लख लीलिये ॥ ऊँचे सिंहासन वैठि बनुनृप, घरमका भूपति भया । वच झंक सेती नरक पहुँचा, सुरगमें नारद गया ॥४॥ ॐ ह्री उत्तमसत्यवर्मागाय अयं निर्वपाति स्वाहा। घरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देहसो । शौच सदा निरदोष, घरम बड़ो संसार मे ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोन पाप को वाप बखाना । आशा-पान महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ।। प्रानी मदा शुचि शील नप तप, ज्ञान-ध्यान-प्रभावते । नित गंगजमुन समुद्र न्हाये, अशुचि दोष सुभावते ॥ ऊपर अमल मलभरयो भीतर, कौनविधि घटशुचि कहूँ । वह देह मैलो सुगुन थैली, शौचगुन सावू लहै ॥५॥ ॐ ह्रीं उत्तमात्रधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy