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________________ MAAS+ P [ ६१ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिपोरा पूर्णाध्यं निर्वपामीति मना तेर्गुमा सुन्दर बोउशकारण भावन निर्मन चित्त सुधारक मारे, क्मं श्रनेक हने शति दुर्धर जन्म जय भय मृत्यु निवारें । दुःख दारिद्र विपत्ति हरं भव नागरने तर पार उतारे । 'ज्ञान' हे यहि पोडशकाररण, कर्म निवारण सिद्धि सुधारं । उपाशीर्वाद जाप्य -- ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धये नमः । ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताय नमः, ॐ ह्रीं शीतव्रताय नमः, ॐ ह्रीं गभीरणज्ञानोपयोगाय नमः, ॐ ह्रीं सचेनाय नमः, ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागाय नम, ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे नमः, ॐ ह्रीं साधुसमाध्यं नमः, ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरणाय नमः, ॐ ह्रीं ग्रह क्त्यै नमः, ॐ ह्रीं प्राचार्यभवत्यं नमः ॐ ह्रो वहुतभक्त्यै नमः, ॐ ह्रीं प्रवनभवत्यं नमः, ॐ ह्रीं प्रावश्यकापरियं नमः, ह्रों मार्गप्रभावनायं नमः, ॐ ह्रीं प्रवचन वत्सलत्वाय नमः ॥ १६ ॥ पंचमेरु पूजा गीता छन्द - तीर्थङ्करो के ह्रवन जलतं, भये तीरथ सर्वदा । ताते प्रदच्छन देत सुर-गन, पचमेरुनकी सदा ॥ दो जलधि ढाईद्वीप मे सब गनत मूल विराजहीं । पूज सी जिनधाम- प्रतिमा, होहि सुख दुख भाजहीं ॥१॥ ॐ ह्री पचमेरु सम्वन्धि-जिन चैत्यालयस्थ- जिनप्रतिमा-समूह
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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