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________________ । ५७ - - जय जय तिन चरणनिके प्रसाद, सब मरी देवकृत भई वाद । जय लोककर निर्भय समस्त, हम नमत सदा नित जोडहस्त ।१० जय ग्रीषमऋतु परवत मझार, नित करत प्रतापन योगसार। जय तृषापरीषह करत जेर, कहुं रंच चलत नहिं मनसुमेर।११॥ जय मूल अठाइस गुणनधार, तप उग्न तपत प्रानन्दकार । जय वर्षाऋतुमे वृक्षतीर, तहँ अति शीतल झेलत समोर ।१२। जय शीतकाल चौपट मंझार, के नदी-सरोवर तट विचार । जय निवसत ध्यानारूढ होय, रंचकनहिं मटकत रोम कोय।१३। जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदहन इत्यादिक गनीय । जय प्रासन नानाभाति धार, उपसर्ग सहत समता निवार।१४। जय जपत तिहारो नाम कोय, लख पुत्र पौत्र कुलवृद्धि होय । जय भरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्रतनों दुख होय क्षार ।१५ जय चोर अग्नि डाकिनपिशाच अर ईति भीतिसब नसतसांच। जय तुम सुमरत सुखलहत लोक, सुरप्रसुर नमत पद देत घोक।। छन्द रोला ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी । परम पूज्य पद धरे, सकल जग के हितकारी ।। जो मन वच तन शुद्ध होय सेवै प्रो ध्यावै । सो जन 'मनरंगलाल' अष्टऋद्धिनको पावै ॥१६॥ दोहा--नमन करत चरणन परत, अहो गरीबनिवाज । " पंच परावर्तननित, निरवारो ऋषिरान ॥१७॥ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्विधारी-सप्तऋषिभ्य पूर्णायं नि ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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