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________________ w ध्यान लगनिकर कर्म कलंक सर्व व नित्य निरंजन ज्योति स्यम्पो है रहे । शायक ज्ञेयाकार ममत्व निधार, सो परमातम मि नमो उर धारिकै ॥१॥ दोहा-प्रविवल ज्ञान प्रकाशर्त गुण प्रनन्त को ज्ञान । ध्यान घरं मो पाइये, परम सिद्ध भगवान ||२|| इरमाशीर्वाद पनि । श्रथ सिद्ध पूजा ( कवि लालकृत ) स्वयं सिद्ध जिन भवन रतनमई विस्य विराजे । नमत सुरामर इन्द्र दरस लखि रवि शशि लार्ज ॥ चार शतक परनाम प्राठ भुविलोक बताये । तिन पद पूजन हेत, भाव घरि मंगल गाये ॥ मनमय मङ्गल फग्न, शिवपद दायक जानिर्फ । श्राह्नान करके जजो सिद्ध मफल उर मानिर्फ || ही गम मिद परमेष्ठिन् । पत्रावतरायनर गंवीपट् महाननं । णमा णि मि परमेष्ठिन् पत्र तिष्ठ तिष्ठ ठस्थापन | ॐ ही णमो सिद्धाण मित्रपरमेष्ठिन् मन मम सन्निहिनो भवभव पर मत्रिधिकरणम् । उज्ज्वल जल शीतन लाय, जिन गुण गावत हैं । सब मिनको सु चढाय, पुण्य वढावत हैं । सम्यक सुक्षायक जान, यह गुण गावत है । पूज श्री सिद्ध महान, बलि बलि जावत हैं ||
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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