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________________ ( १६८ ) बन्धन टूटत ऐरंडबोज, ऊपर उछलत महिमा लखोज । लख प्रगनिशिखा ऊपर विहार, यो कर्मवघ को क्षय निहार।७ ८ धर्मास्तिकायको लख सुभाय, श्राकाश लोक अागे न जाय ६ व्यवहार रूप प्रारज सुक्षेत्र,अरु काल चतुर्थम लख पवित्र मानुषगति लिंग पुलिंग जान, तीर्थङ्कर गणधर सुगुरण खान अरु यथाख्यात चारित्र धार, निजशक्ति जान प्रति शुधनिहार परके उपदेश सु बुद्धि होय, जे लहै मोक्ष सशय न कोय । मतिज्ञान आदि इस्थिति निहार,फिर केवलज्ञान लहै सुसार१० शत पांच घनुष उत्कृष्टि देह, अरु जघन हाथ त्रय अर्द्ध तेह उत्कृष्टि समय छैमास जान, अरु जघन समय सो एक मान लख जघन समय इक सिद्ध होय,उत्कृष्टि समय शत प्रप्टजोय अल्पत्व बहुत्व सु भेद जान, इम साधन सिद्ध समूह मान।१२। दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल । दशाध्याय पूरण भयो, मिथ्यामति को शूल ॥१३॥ ॥ इति दशमोध्याय ॥ दोहा-स्वर पद अक्षर मात्रिका, जानो नहीं विराम । व्यंजन संधि रु रेफको, नहिं पहिचानो नाम ॥१॥ क्षमौ साधु मो अघमको, धारो क्षमा महान । शास्त्र समुद्र गम्भीर को, किनि अवगाही जान ॥२॥ चौपई तत्त्वारथ इस अध्याय माहि, भाषो मुनिपुंगव शकसु नाहिं। जो नर भव धारि यह पढे, तासु उपाय सु फल लहि बढे ।३
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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