SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । १५७ ) स श्रीमान् जगतां प्रयस्य च गुरदयः पुरः पावनः ॥ १३ ॥ त देव त्रिदशाधिपाचितपद घातिक्षयानन्तरप्रोत्पानन्तचतुष्टयं जिनमिनं भव्याजिनीनामिनम् ।। १४ ।। मानस्तम्भपिलोफनानतगन्मान्यं निलोफीपति । प्राप्ताचिन्त्यवाहविभूतिमन नपत्या प्रयन्दामहे ।। १५ ।। ॥इति भगवनिमनापागं पिादिगणानर्गत जिनमत्मनाम्।। प्रय पखवाडा वानी एक नमो सवा, एक दरव प्राकाश । एक धर्म अधर्म दरय, पडवा शुद्ध प्रकाश ॥ दोन दुनन्द सिद्ध संसार, समारी प्रम थावर धार । स्व-पर बया दोनों मन घरो,राग द्वेष तजि समता परो ।। तीज निपान दान नित भनी, तीन फाल मामायक सजो। व्यय उत्पाद नौध्य पद साप,मन-वच-तन थिर होप समाध।। चोय चार विधि दान विचार, चारों धारापन संभार । मंत्री प्रादि भावना धार. चार बन्धसो भिन्न निहार ।। पाच पञ्च लधि लहि जीव, भज परमेष्ठी पञ्च सदीय । पाच भेद स्वाध्याय खान, पाची पंतारे पहचान ॥ था छ लेश्या के पुरनाम, पूजा प्रादि करो परफाम । पुइलग मे जानो पद भेद, छहो फाल लखि सुख वेद ।। सात सात नरक से डरो, सात खेत धन जलसो भरो। सात नय समझी गुणवन्त, सात तत्व सरधाकरि सन्त ।। मा माठ दरस के अंग, ज्ञान पाठ विध सही अभंग ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy