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________________ ( १२६ ) प्रभु तुम छाया नहि भई हीन, सो भयो पापि लपट मली। गरजत घोर घन अधकार, चमकत बिज्जु जल मुसलधार । वरषत कमठ घर ध्यान रुद्र, दुस्तर करन्त निजभवसमुद्र ।३३ वस्तु छन्द मेघसाली मेघमाली प्राप बल फोरि । भेजे तुरत पिशाचगरण, नाथ पास उपसर्ग कारण । अग्निजाल झलकन्त मुख, धुनि फरत जिमि मत्तवारण कालरूप विकराल तन, मुडमाल तिह कण्ठ । है निशङ्क वह रङ्क निज, फरै कर्म दृढ कण्ठ ।। चौपई जे तुम चरणकमल तिहुकाल, सेवहि तज माया जंजाल । भाव भगति मन हरष अपार, धन्य धन्य जग तिन अवतार। भवसागर मे फिरत अनान, मै तुम सुजस सुन्यो नहिं कान । जो प्रभु नाम मन्त्र मन घरै, तासौं विपति भुजङ्गम डरै ।३६ मनवांछित फल जिनपद माहिं, मै पूरव भव पूजे नाहि । माया मगन फिरयो अज्ञान, करहिं रडूजन मुझ अपमान । मोहतिमिर छायो हग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहि तोहि । तौ दुर्जन मुझ सगति गहै, मरमछेद के कुवचन कहै ।३८। सुन्यो कान जस पूजे पाय, नैनन देख्यो रूप अघाय । भक्तिहेतु न भयो चित चाव, दुखदायक किरिया विन भाव । महाराज शरणागत पाल, पतित उधारन दोनदयाल । सुमिरण करहुँ नाय निज शीश,मुझ दुख दूर करहु जगदीश।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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