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________________ M [२१ (मन-मचन- काय) मानस-वारणी अरु काया से, प्राश्रव का द्वार खुला रहता ॥ शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल । शीतल समकित किरणे फूटें, संवर' से जागे अन्तर्वल ॥ फिर तपकी शोधक बह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें। सर्वाङ्ग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निझर फूट पड़ें। हम छोड चलें यह लोक" तभी, लोकांत विराजे क्षरण मे जा। निज लोक हमारा वासा हो शोकात बनें फिर हमको क्या ? जागे मम दुर्लभवोषि" प्रभो ! दुर्नयतम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर-मोह विनश जावे ॥ चिर-रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग मे न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथी ।। चरणों में पाया हूँ प्रभुवर!, शीतलता मुझको मिल जावत मुर्भाई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तरबल' से खिल जावे ॥ सोचा करता हू भोगो से, बुझ जायेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक मे घी डाला ॥ तेरे चरणो की पूजा से, इन्द्रिय-सुख की ही अभिलाषा । अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुखकी भी परिभाषा ।। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग मे रहते जग से न्यारे । प्रतएव झुकें तव चरणो मे, जग के मारिणक-मोती सारे ॥ स्याद्वावमयी तेरी वाणी शुधनय के झरने झरते हैं।' इस पावन नौका पर लाखों, प्रारणी भव-वारिधि तिरते हैं । -आत्म पुरुषार्थ २-अग्नि ३-भागम
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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