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________________ ( १८ . साम्यभाव रखूं मैं उन पर ऐसी परिरगति हो जावे ||५|| गुणीजनो को देख हृदय से, मेरे प्रेम उमड़ आवे | घने जहां तक उनकी मेवा, फरके यह मन सुख पावे ॥ होऊ नहीं कृतघ्न कभी में, द्रोह न मेरे जर श्रावे । गुरण-ग्रहरण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ||६|| कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी नावे या जावे । मृत्यु श्रान ही या जावे ॥ या लालच देने श्रावे | लाखो वर्षों तक जीऊ या, अथवा कोई कैसा हो भय, तो भी न्याय-मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ||७|| होकर सुख मे मग्न न फूले, दुःख में कभी न घबरावे । पर्वत नदी - श्मशान - भयानक, अटवी से नहि भय खावे || रहे अडोल-प्रकम्प निरन्तर, यह मन दृढतर वन जावे । इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, सहनशीलता दिखलावे ||६|| सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे । वैरन्पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मङ्गल गावे । घर घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे । ज्ञान-चरित उम्नत कर अपना, मनुज जन्मफल सब पावे || इति-भीति व्यापे नहि जगमे, वृष्टि समय पर हुआ करे । धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे । रोग-सरी दुभिक्ष न फैले, प्रजा शाति से जिया करे । परम श्रहमा धर्म जगत में, फैल सर्व हित किया करे |१०| फैले प्रेम परस्पर जग मे, मोह दूर पर रहा करे ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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