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________________ (१०) श्राप समीप हजूरमाहि मै खड़ो ३ सब । दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुख देहि जव ।३। क्रोध मान मद लोभ मोह मायावशि प्रानी। दुःख सहित जे किये दया तिनको नहि पानी ।। बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय बि ति चउ पचेन्द्रिय । प्राप प्रसादहि मिट दोष जो लग्यो मोहि जिय ।३। प्रापस मे इक और घापि कर जे दुख दीने । पेलि दिये पग तलें दाबकरि प्राण हरीने । श्राप जगत के जीव जिते तिन सबके नायक । अरज करौं मैं सुनो दोष मेटो सुखदायक ।४। अंजन प्रादिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा २ किय । मेरे जे अब दोष भये ते क्षमो दयानिधि। यह पडिकोरयो कियो प्रादि षटकर्म माहि विधि ।। अथ द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे। तिनको जो अपराध भयो मेरे प्रघ ढेरे । सो सब भूतो होउ जगतपति के परसादे । जा प्रसादत मिले सर्व सुख दुख न लार्धे ।। मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि होल महाशठ । किये पाप अति घोर पापमति होय चित्त दुठ ।। निहूँ मै बार बार निज नियको गरहूँ। सब विध धर्म उपाय पाय फिर पापहि फरहूँ ॥७॥ दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी । सतसगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ।। जिनवचनामृतधार समावर्ते जिनवानी । तोहू जीव संहारे पिक धिक धिक हम
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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