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________________ मरयादा तुमडिंग लोनी, ताहू मे दोष जु कोनी । भिन भिन अब कसे कहिये, तुम ज्ञानविर्ष सब पइये ।१७। हा हा | मैं दुठ अपराधी, सजीवनराशि विराधी । थावरको जतन न कोनी, उर मे करुना नहि लोनी ॥१८॥ पृथिवी बहु खोद कराई महलादिक जागा चिनाई । पुनि विन गाल्यो जल ढोल्यो, पखाते पवन विलोल्यो ।१६। हा हा ! मैं अदयाचारी, बहुहरितपाय जु विदारी। तामधि जीवन के खदा, हम खाये धरि पानन्दा ।२०। हा हा ! परमाद वसाई, विन देखे अनि जलाई । तामधि जे जीव जु प्राये, ते हू परलोक सिघाये ।२१। बोध्यो अन रात पिसायो, ई वन विन सोधि जलायो। झाड़ ले जागा वुहारी, चिउटी प्रादिक जीव विदारी ।२२। जल छानि जिवानी कोनी, सोहू पुनि डारि जु दीनी । नहि जलथानक पहुंचाई, किरिया बिन पाप उपाई ।२३, जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुल बहु घात करायो । नदियन विच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये ।२४। अन्नादिक शोध कराई, ता मे जु जीव निसराई । तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया ।२५। पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु प्रारम्भ हिंसा साजे । किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी ।२६। इत्यादिक पाप अनन्ता, हम कीने श्री भगवन्ता । संतति चिरकाल उपाई, बानी ते कहिय न जाई ।२७।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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