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________________ १६१ 1 मधुर फल लेकर यहा । मत पावसा मुक्ति में पाठ यश श्रीफलं । यह पाठ धनूप मा स्नेह में पुनर्पित हृदय । मत पात्रों में घटा भववार में होऊं अभय श्रीगुरु प्रध्ये जन्मामा सोरटा-पूज्य सम्पन सावि, मात शतक साधन नूयी । यह उनकी जयमान, ये मुनको निज भक्ति दें ॥ (Tk (7) ये जीव दयापाले महान, ये पूर्ण पाहिमक ज्ञानयान । नये न शेष उनके न राग, घे करें साधना मोर त्याग ॥ प्रिय सत्य बोले न चैन मन वचन कायमे भेद है न । ये महामत्य धारफ सलाम है उनके चरणो मे प्रणाम || ये लें न कभी तृणजन प्रदत्त, उनके न घनादिक मे ममत्त । ये व्रत ची घरं मार, हे उनको सादर नमस्कार ।। ये करें विषय को नहीं चाह, उनके न हृदय में काम-वाह ये शील सदा पालें महान, फर मग्न रहे जिन प्रात्मध्यान ॥ सब छोट वसन भूषण निवास, माया ममता प्ररु स्नेह प्रास | वे घरे दिगम्बर वेष शान्त, होते न कभी विचलित न भ्रांत ।। नित रहे साधना मे सुलीन, वे सहें परोपह नित नवीन । वे करें तत्त्वपर नित विचार. हे उनको सादर नमस्कार || पचेन्द्रिय बमन करें महान, ये सतत बढायें श्रात्मज्ञान । संसार देह सब भोग त्याग, ये शिव-पथ सावे सतत जाग ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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