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________________ १७ः । उत्तम धूप सुगन्ध बनाकर, दश दिशि मे महकावे । दशविधि बन्ध निवारक कारन, जिनवर पूज रचावे । पधूप।। सरत सुवरण सुगन्ध अनूपम, स्वच्छ महाशुचि लावे । शिवपद कारण जिनवरपदको, फलसो पूज रचावे पर फल।। वसुविधिके बस वसुधा वही, परबस अति दुख पावे । तिहि दुख दूर करनको भविजन, अर्घ जिनाग्र चढावे ।प प्रय॑।। जयमाला। दोहा-पाठ कर्म हनि पाठ गुरण, प्रकट करे जिनरूप । सो जयवन्तो भुजवली, प्रथम भये शिव भूप ।। कुसुमलता छन्द । जय जय जय जगतारण शिरोमणि, क्षत्रिय वश असग महान । जय जय जय जग जन हितकारी, दीनो जिन उपदेश प्रमाण ॥ जय जय जय चक्रपति सुत जिनके, गत सुत ज्येष्ठ भरत पहिचान । जय जय जय श्री ऋषभदेव जिन सो जयवन्त सदा जग जान ॥ जिनके द्वितीय महादेवी गुचि, नाम सनन्दा गुण की खान । रूप गोल सम्पन्न मनोहर, तिनके सत भुजवली महान ।। सवा पञ्च शत धन उन्नत तनु, हरित वरण शोभा असमान । वैडूर्यमणि पर्वत मानो नील कुलाचल सम थिर जान ।। वैजयन्त परमाणु जगत मे, तिनकरि रचौ शरीर प्रमाण । सत वीरत्व गुणाकर जाको, तिनकरि रचौ शरीर प्रमाण ॥ घोरज अतुल वज्र सम नीरज, सम वीराग्रणि प्रति बलवान । जिन छवि लखि मनु शशि छबि लाजै, कुसुमाच प लोनो सुखमान ॥ बाल समय जिन बाल चन्द्रमा, शशिसे अधिक घरे दुति सार । जो गुरुदेव पढाई विद्या, शस्त्र शास्त्र सब पढो अपार ।। ऋषभदेव ने पोदनपुर के, नर कीने भुजबली कुमार । दई अयोध्या भरतेश्वर को, आप बने प्रभुजी अनगार ॥
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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