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________________ [ १५५ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि। बेला गुलाब मुचकन्द, सुमन सुगन्ध भरे । तुमको पूजत प्रभु चन्द, काम कलंक हरे ॥देहरे०॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि । नैवेद्य जु विविध प्रकार, षट् रस बलकारी । कर क्षुधा वेदनी क्षार, भूख नशे म्हारी ॥देहरे॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० घृत के भर दीप जलाय, धारूँ तुम पागे । मम तिमिर मोह नशि जाय, ज्ञान कला जागे ।देहरे०।। ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. शुभ धूप दशांग बनाय, पावक मे खेऊँ। मम प्रष्ट करम जर जाय, मोक्ष धरा लेऊ ॥देहरे०।। ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि० । पिस्ता बादाम अनार, केला सुखकारी। धारे प्रभु चन्द्र पगार, पावे शिव नारी ।देहरे०॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि । मज जल फल प्रादिक अर्घ, तुम गुण गावत हूँ । पद पाऊँ नाथ अनर्घ, शीश नमावत हूं देिहरे॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अय॑म् नि । *पंच कल्याणक * बदि चैत सुपंचमि आई, तज वैजयंत जिनराई। लक्ष्मरणा मात उर आये, सुर इन्द्र जजे शिरनाये ।। ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय चैत वदी पचमी को गर्भमगल मण्डिताय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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