SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ । महिसागर इक सेठ कथा ग्रन्थन कही । उनही ने यह पूजा कर श्रानन्द लही || ताते रविव्रत सार, सो भविजन कीजिये । सुख सपति संतान, अतुल निधि लीजिये ।। पार्श्व जिनेश को, हाथ जोड़ शिर नाथ । परभव सुख के कारने, पूजा करू बनाय || एतवार व्रत के दिना, एही पूजन ठान । ताफल सुख सम्पति लहै, निश्चय लीजे मान ॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र । श्रत्र श्रवतर श्रवतर मवीपट् श्राह्वाननम् । श्रत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ प्रतिष्ठापनम् । श्रत्र मम सन्निहितो भव भव वपद्, सन्निधिकरणम् । उज्ज्वल जल भर कर प्रति लायो रतन धार देत प्रति हर्ष बढ़ावत, जन्म जरा पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के सुख सम्पति वहु होय तुरत हो, श्रानन्द ॐ ह्री श्रीपादवनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जन || १ || मलयागिरि केशर ग्रति सुन्दर, कुंकुम रंग बनाई । ― कटोरन माहीं । मिट जाहीं ॥ दिन भाई । मंगलदाई ॥ धारदेत जिन चरणन श्रागे, भव प्राताप नशाई । पारस. चदन | मोतीसम प्रति उज्ज्वल तन्दुल ल्यायो नीर पखारो । प्रक्षयपद हेतु भावसो श्रीजिनवर ढिंग धारो । पारस. प्रक्षत। बेला पर मचकुन्द चमेली, पारिजात के ल्यावो । चुनचुन श्रीजिन प्रग्र चढाऊँ, मनवांछित फल पाऊँ । पा. पुष्पं । वावर फेनी गुञ्जा श्रादिक, घृत मे लेत पकाई । कंचनयार मनोहर भरके, चरणन देत चढाई || पारम. नैवेद्य ||
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy