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________________ १०४ ] यह एक जन्म को बात जान, मैं कह न सकत हूँ देवमान ।। जब तुम अनन्त परजाय जान, दरशायो तसृति पथ विधान । उपकारी तुम दिन और नाहि, दीखत मोको इस जगत माहि ।। तुम लव लायक नायक जिनन्द, रत्नत्रय तपति यो प्रनन्द । यह अरज करू मैं श्रीलिनेश, भव भव लेवा तुम पद हमेश ।। भवभवमे श्रावक कुल महान, भवभवमे प्रकरित तत्त्वज्ञान । भवनवमे व्रत हो अनागार, तिस पालनते हो भवाब्धिपार ॥ ये योग सदा मुझको लहान, हे दीनबन्धु करुणा निधान । "दौलत पोतेरी" मित्र दोय तुम शरण गही हरषित सुहोय ॥ पत्ता-जो पूजे घ्यावे भक्ति बढावे, ऋषिमण्डन शुभयत्र तनी । या भव मुखपावे सुजस लहावे,परभव स्वर्ग नुमोक्षघनी ।। ॐ ही ननद्रव वनागनननर्याच गोगोर नर्वस हगव नशान्तिप्टिमगर, श्रीवृपमादि चौबीन तीर्थकर प्रप्टवर्ग अन्तादि पचपद, दर्गन जान चारित्र सहित चतुनिनाय देव, चव प्रकार प्रधिघारक प्रमण अप्ठ ऋद्धिनयुक्त बोस चार नि तोन हो, पहंदिर, दादिपान पत्र सम्बन्धि परमदेवार जयमाला पीय निर्वपानीति न्वाहा। ऋषिमण्डल शुभ यन्त्र को, नो पूजे मन लाय । ऋद्धिमिद्धि ता घर बने, विघन नघन मिट जाय ।। विघन नघन मिट जाय, सदा सर वो नर पावै । ऋषि मप्रल शुभ यन्त्र तनो, जो पूज रचावं ।। भावभक्ति युन होय, मदा जो प्राणी घ्यावं । या भव में नर भोग, स्वर्ग की सम्पति पावै ।।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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