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________________ [ ९५ सबमध्य द्वीप जम्बू गिनेय । त्रयदशम चिकवर नाम लेय ।। इन तेरह में जिनधाम जान । शतचार अठावन है प्रमान । खग देव प्रसुरनर प्रायप्राय । पद पूज जाय शिर नायनाय ।। जय अवलोक सुर कल्पवास । तिहथानछजे जिनभवनवास। जय लाखचुरासोपं लखेय । जयसहस सत्यारणव और ठेय ।। जय बोसतीन पुनि जोड़देय । जिन भवन प्रकीर्तम जानलेय।। प्रतिभवन एकरचना कहाय । जिनबिंब एकशत पाठ पाय ।। शतपञ्च धनुष उन्नत लसाय । पदमासनयुत वर ध्यानलाय।। शिरतीन छत्रशोभित विशाल । त्रयपादपीठ मरिणजटितलाल। भामण्डलको छबि कौन गाय । पुनिचवरदुरत चौसठि लखाय ।। जय दुन्दुभिरव अद्भुत सुनाय । जयपुष्पवृष्टि गंधोदकाय ।। जय तरुप्रशोक शोभा भलेय । मंगल विभूति राजत प्रमेय ।। घटतूप छजे मरिणमाल पाय । घटधूम्रपूम्र दिग सर्व छाय । जयकेतुपक्ति सोहै महान । गधर्व देव गुन करत गान । सुरजनमलेतलखि अधिपाय । तिसथान प्रथम पूजनकराय ॥ जिनगेहतनो वरनन अपार । हम तुच्छबुद्धि किम लहतपार।। जयदेव जिनेसुर बगत भूप । नमि "नेम" मंगै निज देहरूप ॥ दोहा तीनलोक मे सासते; पोजिन भवन विचार । . मनवचतन करि शुद्धता, पूजो अरघ उतार ॥ ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पंचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु-शतकाशीति अकृत्रिम श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २३॥
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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