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________________ जैन-समाजका हास क्यों ? AMANAAREAM जान कुमार अति प्रसन्न हुए और उसके साथ अपने स्थानको वापिस चले आये एवं अन्य विद्याधर भी अपने अपने स्थानोंको चले गये ।। २३-२४ ॥ __इस उल्लेख पर से इतना ही स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातङ्ग जातियोंके चाण्डाल लोग भी जैनमन्दिरमें जाते और पूजन करते थे, बल्कि यह भी मालूम होता है कि *श्मशान भूमिकी हड्डियोंके श्राभूषण पहिने हुए, वहाँकी राख बदनसे मले हुए, तथा मृगछाला श्रोढ़े, चमड़ेके वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएँ हाथमें लिये हुए भी जैन मन्दिरमें जा सकते थे, और न केवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पूजा करने के बाद उनके वहाँ बैठने के लिये स्थान भी नियत था, जिससे उनका जैनमन्दिरमें जाने का और भी ज्यादा नियत अधिकार पाया जाता है । जान पड़ता है उस समय 'सिद्धकूट-जिनालय' में प्रतिमागृहके सामने एक बहुत बड़ा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तम्भोंके विभागसे सभी आर्य-अनार्य जातियोंके लोगोंके बैठनेके लिये जुदाजुदा स्थान नियत कर रक्खे होंगे । आजकल जैनियोंमें उक्त सिद्धकूट जिनायलके ढङ्गकाउसकी नीति का अनुसरण करनेवाला-एक भी जैनमन्दिर नहीं है । * यहाँ इस उल्लेख परसे किसीको यह समझनेकी भूल न करनी चाहिये कि लेखक आजकल ऐसे अपवित्र वेषमें जैनमन्दिरों में जानेकी प्रवृत्ति चलाना चाहता है। + देखो, इस हरिवंशपुराणका सन् १८१६ का छपा हुश्रा संस्करण, पृष्ठ २८४, २०५।
SR No.010296
Book TitleJain Samaj ka Rhas Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1939
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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