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________________ २४ जैन समाजका हास क्यों ? ही प्रवेश कर जाएँगे । रक्त वंश में प्रवाहित होता रहता है, इसलिये रोग भी वंशानुगत चलता रहता है। पापका रक्तसे सम्बन्ध नहीं, यह आत्माका स्वतन्त्र कर्म है, अतः वही उसके फलाफलको भोग सकता है, दूसरा नहीं। . जैन-धर्ममें तो पापीसे नहीं, पापीके पापसे घृणा करनेका श्रादेश है। पापी तो अपना अहित कर रहा है इसलिये वह क्रोधका नहीं, अपितु दयाका पात्र है ! जो उसने पाप किया है, उसका वह अपने कर्मानुसार दण्ड भोगेगा ही, हम क्यों उसे सामाजिक दण्ड देकर धार्मिक अधिकारसे रोकें और क्यों अपनी निर्मल आत्माको कलुषित करें ? पापीको तो और अधिक धर्म-साधन करनेकी आवश्यकता है । धर्म-विमुख कर देनेसे तो वह और भी पापके अंधेरै कूपमें पड़ जायेगा जिससे उसका उद्धार होना नितान्त मुश्किल है। तभी तो जैन-धर्मके मान्य ग्रन्थ पंचाध्यायी में लिखा है: सुस्थितीकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात् । भृष्टानां स्वपदात् तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः॥ अर्थात्-धर्म-भ्रष्ट और पदच्युत प्राणियोंको दया करके धर्ममें लगा देना, उसी पदपर स्थिर कर देना यही स्थितिकरण है। जिस धर्मने पतितोंको, कुमार्गरतोंको, धर्मविमुखोंको, धर्ममें पुनः, स्थिर करनेका आदेश देते हुए, उसे सम्यकदर्शनका एक अंग कहा है और एक भी अंग-रहित सम्यकदृष्टि हो नहीं सकता; फिर क्यों उसके अनुयायी जाति-च्युत करके, धर्माधिकार छीनकर, धर्म-विमुख करके अपनेको मिथ्यादृष्टि बना रहे हैं और क्यों धर्ममें विघ्न-स्वरूप होकर,
SR No.010296
Book TitleJain Samaj ka Rhas Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1939
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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