SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __छक्खंडाग़म . ६३ मूलप्रकृतिवन्धके दो भेद है-एककमूलप्रकृतिवन्ध और अव्यागाढमूलप्रकृतिवन्ध । अव्यागाढमूलप्रकृतिबन्धके दो भेद हैं-भुजाकारवन्ध और प्रकृतिस्थानवन्ध । इनमें उत्तरप्रकृतिवन्धके चौवीरा अनुयोगद्वार है। उन चोवीस अनुयोगद्वारोमें एक वन्धस्वामित्व नामक अनुयोगद्वार है। उसीका नाम वधस्वामित्वविचय है। ___ इस तरह वन्धरवामित्वविचय नामक तीसरा खण्ड भी कर्मप्रकृतिप्राभृतके छठे अनुयोगटारसे उपजा है। ___ चतुर्थ खण्ड वेदनाके अन्तर्गत कृति अनुयोगद्वारके आदिमें तो सूत्रकारने स्वय ४४ सूत्रोसे मगलरूप नमस्कार किया है और पैतालीसवें सूत्रमे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूपमे आग्रायणीय पूर्वके पचम वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोगद्वारोका निर्देश किया है। जिससे स्पष्ट है कि चतुर्थादि खण्ड कर्मप्रकृतिप्राभृतके कृति आदि अनुयोगद्वारोको ही सक्षिप्त करके लिखे गये है। सभवत इसीसे ही वीरसेनस्वामीने शुरूके तीन खण्डोकी तरह उत्तरके तीनो खण्डोके सम्बन्धमें यह कथन नहीं किया कि वे अमुक अनुयोगद्वारसे निकले है । किन्तु कृति अनुयोगद्वारके प्रारम्भिक मागलिक सूत्रोको लेकर वीरसेनस्वामीने जो लम्बी चर्चा की है उसे हम यहां दे देना उचित समझते है, क्योकि इन तीन खण्डोका द्वादशाग वाणीसे सीधा सम्बन्ध होनेके सम्बन्धमें उससे पर्याप्त प्रकाश पडता है। शका-निवद्ध' और अनिवद्धके भेदसे मगलके दो प्रकार है। उनमेंसे यह मगल निवद्ध मगल है अथवा अनिवद्ध ? । समाधान ---यह मगल निवद्ध नही है क्योकि कृति आदि चौवीस अनुयोगद्वारवाले महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके आदिमें -गौतमस्वामीने यह मंगल किया है । और भूतबलि भट्टारकने इसे वहाँसे उठाकर वेदनाखण्डके आदिमें ला रखा है। अत इसे निवद्ध मगल नही मान सकते, क्योकि न तो वेदनाखण्ड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है, अवयवको अवयवी नहीं माना जा सकता, और न भूतवलि गौतम गणधर है, क्योकि धरसेनाचार्यके शिष्य और विकलश्रुतके धारक भूतवलि वर्धमानस्वामीके शिष्य और सकल श्रुतके धारक गौतम नही हो सकते । यदि ऐसा हो सकता, तो इस मगलको निवद्ध मगल कह सकते थे। अत यह अनिबद्ध मगल है। अथवा इसे निबद्ध मगल भी कह सकते है । १. सूत्रके आदिमे सूत्रकारके द्वारा जो देवताको नमस्कार किया जाता है उसे निवद्धमगल कहते हैं। और जो सूत्रके आदिमे सूत्रकारके द्वारा निबद्ध देवतानमस्कार हैं उसे अनिबद्धमगल कहते हैं। २, छक्ख०, पु. ९, पृ० १०३-१०४ । ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy