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________________ छक्खंडागम : ६१ सत्कर्मपंजिकाके' प्रारम्भिक कथनरो भी इसी वातका रामर्थन होता है । उसमें लिखा है-'महाकर्मप्रकृतिप्राभृतये कृति, वेदना आदि चौवीरा अनुयोगहारोमेसे कृति और वेदनाका वेदनाखण्डमे, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और वन्धनके चार अनुयोगोमेंसे वन्ध और वन्धनीयका वर्गणाखण्डमे, वन्धनविधान नामक अनियोगद्वारका महावन्धमे और बन्धक अनियोगद्वारका खुद्दावन्धमे विस्तारसे कथन किया है। शेप अठारह अनुयोगद्वार सतकम्ममें कहे गये हैं। तीर्थकर महावीरकी वाणीसे इसका सम्बन्ध और स्रोत भगवान महावीर स्वामीकी धर्मोपदेशनाको श्रवण करके उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने उसे बारह अगोमें निबद्ध किया था । वारहवा अंग दृष्टिवाद शेप सब अगोंसे महत्वपूर्ण और विशाल था। उसके महत्व और विशालताका कारण था उसके अन्तर्गत चौदह पूर्व । उनमेंसे द्वितीय आग्रायणीय पूर्वके पचम वस्तु अघिकार चयनलब्धिमें वीस प्राभृताधिकार थे। उन प्राभृत नामके अधिकारोमें चौथे प्राभृतका नाम महाकर्मप्रकृति था। उरा महाकर्मप्रकृतिके चौवीस अनुयोगद्वार नामक अधिकार थे । उनको उपसहृत करके इस पट्खण्डागम ग्रन्थको रचना की गई है। इस बातका निर्देश चतुर्थ वेदनाखण्डके आदिम कृति अनुयोगद्वारका अवतरण करते हुए स्वय सूत्रकार भूतबलिने किया है _ 'भग्गेणियस्स पुन्वस्स पचमस्स क्त्थुस्स चउत्यो पाहुडो कम्मपयडी गाम । तत्य इमाणि चवीस अणिमोगद्दाराणि गादग्वाणि भवति–फदि वेदणाए पस्से कम्मे पयडीसु बंधणे णिवंधणे पक्कमे उवक्कमे उदए मोक्खे पुण सकमे लेस्सा लेस्सायम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दोहेरहस्से भवधारणाए तत्य पोग्गलत्ता णिवत्तमणिवत्त णिकाचिदमणिकाचिदं कम्मढिदि पच्छिमक्खंघे अप्पाबहुग च सन्वत्य ॥४५॥ अर्थात् आग्नेयणीय पूर्वके पचम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ प्राभूतका नाम कर्मप्रकृति है। उसके विपयमें ये चौवीस अनुयोगद्वार जानने योग्य है-१. कृति, २. वेदना, ३ स्पर्श, ४ कर्म, ५. प्रकृति, ६. बन्धन, ७ निवन्धन, ८ प्रक्रम, ९ उपक्रम, १० उदय, ११. मोक्ष, १२ सक्रम, १३ लेश्या, १४ लेश्याकर्म, १ महाकम्मपयडिपाहुटस्स कदिवेदणाओ (इ) चउव्वीस मणियोगदारेसु तत्थ कदिवेदणा त्ति जाणि अणियोगद्दाराणि वेयणाखण्डास्सि पुणो प (पस्स-कम्म-पयडि-वधण त्ति ) चत्तारि अणियोगद्दारेसु तत्थ वध बधणिज्जणामाणियोगेहि सह वग्गणा खडम्मि, पणो वधविधाण णामाणियोगद्दारो सहावधम्मि पुणो वधगाणियोगो खुद्दावधम्मि च सप्पवचेण परूविदाण । पुणो तेहिंतो सेसहारसाणियोगद्दाराणि सत कम्मे सन्वाणि परूविदाणि ।'पटख, पु. १५, परि० पृ०१।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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