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________________ छक्खंडागम : ५३ नामोसे ही अभिहित किया जाता था । किन्तु सामूहिक रूपगे उन्हें छ.सण्ड या पट्सण्ड कहा जाता था, क्योंकि जयधवलाकी 'प्रशरित में वीररानस्वामीका गुणगान करते हुए कहा गया है कि चक्रवर्ती भरतकी माज्ञाकी तरह जिनकी भारती पट्सण्डमे ररालित नही हुई । नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी अपने कर्मकाण्डमे 'छक्खण्ड' नागसे ही उसका उल्लेस किया है । अत छहो सण्डी को उनके रचयिता भूतव लिने कोई नाम नही दिया था। इसीस वादको पट्सण्ड नामसे वे अभिहित किये जाने लगे । वीरसेनस्वामीने 'सण्ड' के साथ सिद्धान्तशब्दका प्रयोग करके उन्हे 'सण्डसिद्धान्त' कहा है । जयधर्वलाको प्रशस्तिमें इस गिद्धान्तशब्दकी सार्थकता बतलाते हुए कहा है-- जिसके अन्तमें सिद्धोका कथन हो उसे सिद्धान्त कहते हैं । अत वीरसेनस्वामी के अनुसार इसका नाम पट्खण्ड सिद्धान्त था । किन्तु इन्द्रनन्दिने आगमशब्दका प्रयोग करके उन्हें छवसडागम कहा है । यद्यपि सिद्धान्त ओर आगमशब्द एकार्यवाची है, फिर भी दोनो शब्दोका यौगिक अर्थ भिन्न है और दोनो अपना-अपना इतिहास रसते है । सतकम्मपाहुड ( सत्कर्म प्राभृत ) धवलाटीका और जयववलाटीकाम भी 'सत्कर्मप्राभृत' का उल्लेख मिलता हँ | धवला आरम्भमे ही लिखा है कि यह सतकम्मपाहुडका उपदेश है । ओर कराायपाहुडका उपदेश है कि आठ कपायोका क्षपण होने पर पीछे अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् सोलह कर्मप्रकृतियोका क्षय होता है । इस पर आशका की गई कि इन दोनो वचनोमे विरोध क्यो है, तो कहा गया कि वे दोनो आचार्यवचन है, 'जिनेन्द्रवचन नही है' अत उनमे विरोध होना सम्भव है । इसी तरह जयधवलाटोकामें भी सतकम्मपाहुडका उल्लेख मिलता है । ऊपर धवलामें कसायपाहुडके प्रतियोगीरूपमें सतकम्मपाहुडका जिस प्रकार निर्देश किया गया है उससे बराबर यह व्यक्त होता है कि सतकम्मपाहुड कसायपाहुडका समकक्ष आगमग्रन्थ होना चाहिये । उसके नामके साथ भी पाहुडशब्द जुडा हुआ है, ? 'भारती भारतीवाज्ञा पट्सण्डे यस्य नास्खलत् ॥ २० ॥ ' -- ज० प्र० । ३ 'सिद्धानां कीर्तनादन्ते य सिद्धान्तप्रसिद्धवाक् ॥ १ ॥' – ज० प्र० । ३ ' आगमो मिद्ध तो पवयणमिदि एयटठो' – पट्स०, पु० १, पृ० २० । ४ 'एमो सतकम्मपाहुडउवामो । कसायपाहुटउवएसो पुण 1 पट्स० पु० १, पृ० २१७-२२१ । ५ 'एमो अत्यविसेसो सतकम्मपाहुडे वित्थारेण भणिदो । एत्थ पुण गयगउरवभएण ण भणिदो ।' - ज०ध० प्र े० का०, पृ० ७४४१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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