SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ जैनसाहित्यका इतिहास तो पुनरुक्त दोप आता है। दूसरे पक्षमे वह चौदह जीवसमामोसे प्रतिवद्ध अर्थका कथन करता है अथवा अप्रतिवद्ध अर्थका ? प्रथम विकल्पमें 'चौदह जीवसमासोके कथनके लिए ये आठ ही अनुयोगद्वार जानने योग्य है' इस सूत्रमे आये हुए एकवार (ही) की विफलता प्राप्त होती है, क्योकि चौदह जीवसमासोसे प्रतिवद्ध अर्थका कथन करने वाला चूलिका नामक नौवाँ अधिकार पाया जाता है। दूसरा पक्ष मानने पर चूलिका नामक अधिकार जीवस्थानसे पृथक्भूत हो जाएगा, क्योकि वह जीवस्थानसे प्रतिवद्ध अर्थका कथन नही करता। समाधान- पुनरुक्त दोप नहीं आता, क्योकि चूलिका नामक अधिकारमे आठ अनुयोगद्वारोसे नही कहे गये तथा कहे गये अर्थका निश्चय कराने वाले और आठ अनुयोगहारोसे सूचित, किंतु उनसे कथचित् भिन्न अर्थका कथन किया गया है ।। इस शका-समाधानके पश्चात् धवलाकारने चूलिकाका अन्तर्भाव उक्त आठ अनुयोगद्वारोमे ही करके यह बतलाया है कि चूलिका जीवस्थानसे भिन्न नही है । इस चर्चासे प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्त आचार्यके द्वारा सूचित आठ अनुयोगद्वारोमें जो बाते कथन करनेसे छूट गयी, उनका या सम्बद्ध अन्य बातोका कथन चूलिका नामक अधिकारमे किया गया। अत चूलिका अधिकार भूतबलिकी उपज जान पडता है और उसपरसे यही व्यक्त होता है कि पुष्पदन्तने केवल जीवस्थाननामक खण्डकी ही रूपरेखा निर्धारित की थी। धवला-टीकाके आरम्भमें भी वीरसेनस्वामीने जीवस्थानके ही अवतारका कथन किया है, छक्खडागमसिद्धातका नहीं। जीवस्थानके अवतारका कथन करते हुए उन्होने बतलाया है कि-दूसरे अग्रायणीय पूर्वके अन्तर्गत चौदह वस्तुअधिकारोमें एक चयनलब्धि नामक पाचवाँ वस्तु-अधिकार है । उसमें वीस प्राभृत है । उनमेसे चतुर्थप्राभृत कर्मप्रकृति है । उस कर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अर्थाधिकार है । उनमे एक बन्धन नामक अर्थाधिकार है। उस बन्धन नामक अर्थाधिकारमें भी चार अधिकार है-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और वन्धविधान । इनमेंसे बन्धक अधिकारके ग्यारह अनुयोगहार है। उनमे पाचवा अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाणानुगम है । जीवस्थाननामक खण्डमें जो द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकार है वह इस बन्धकनामक अधिकारके द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकारसे निकला है । १ मपहि जीवट्ठाणस्स अवयारो उच्चदे।'–पटख पु १, पृ ७० 1 . २ पट्सडा०, पु. १, पृ १०३ ३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy