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________________ ४२ जनसाहित्यका इतिहास करता है तो ग्यारहवे गुणस्थानमे गहुँच कर नियमगे नीचे गिरता है। जैगा पर कहा है । और क्षय करनेपर नियगमे मोक्ष प्राप्त करता है । उगीसे ग अधिकार की गाथागण्या एकमोसे भी अधिक है। चारित्रमोहनीयकी इक्कीस कर्मप्रकृतिया क्षय करने वाले जीवके पूर्ववद्ध कर्मको क्या स्थिति रहती है, उनमे अनुभाग गौमा रहता है, उस समय किंग कर्मका मक्रमण होता है और किमका मक्रमण नहीं होता, इत्यादि प्रश्नपूर्वक उनका ममाधान किया गया है। गाय ही दाय होने वाली प्रकृतिगोका क्षय किम प्रकारमे किरा-किस आन्तरिक क्रियाके द्वारा होता है, यह भी विस्तारगे स्पष्ट किया है। कपायोके अनुभागको घटाकर उन्हे यश किया जाता है, गमे कन्टिकरण कहते है इम कृष्टिकरणविषयक जिज्ञासाका भी सूत्रस्पर्म गमाधान किया गया है। उस तरह मोहनीयकर्मके अनुभागका कृष्टिकरण करनेपर कृप्टिवंदनके प्रथम समयमे वर्तमान जीवके पूर्वबद्ध ज्ञानावरणादि कर्म किन-किन स्थितियोंमें और अनुभागोमे वर्तमान रहते है तमा वर्तमानमे वैचने वाले और उदयमे माने नाले कर्म किन-किन स्थितियोमे और अनुभागोमे पाये जाने है, ये जिज्ञामाए करके उनका समाधान किया गया है। यथा-मोहनीयामका कृष्टिकरण र देनेपर नाम, गोत्र और वेदनीय ये तीन कर्म असस्यात वर्षाको स्थितिवाले होते है और गेग तीन धातिया कर्म सत्यात वर्णकी स्थितिवाले रहते है इत्यादि । अन्तिम गाथामे कहा है-इस प्रकार मोहनीयकर्मके क्षीण होने तक सक्रमणा विधि, अपवर्तना विधि, और कृष्टिक्षपण विधि ये क्षपणा-विधिया मोहनीयकर्मको क्रमसे जानना । इस अन्तिम कथनके साथ कसायपाहुउ समाप्त होता है। इस तरह आचार्य गुणधरने इस गन्थमें मोहनीयकर्मके प्रकृतिसत्व, स्थितिसत्व अनुभागसत्व और प्रदेशमत्वक पृच्छासूत्रात्मक कथनके साथ बन्ध, उदय, उदीरणाका निर्दशमात्र करके सक्रमणका कुछ विस्तारसे कथन किया है । एक कर्मप्रकृतिक अन्य सजातीय प्रकृतिरूप होनेको मक्रमण कहते है । इसके पश्चात् दर्शनमोहके उपशम और क्षपणका कथन करके अन्तमे चारिनमोहके उपशमन और क्षपणका विस्तारसे कथन किया है। जिम तरह मोहनीयकर्मका वन्ध जीवके परिणामोसे होता है उसी तरह उनका सक्रमण, उपशम, क्षय भी जीवके ही परिणामोसे होता है। परिणामोकी विशुद्धि मोहनीयकर्मके उपशमादिमें निमित्त पडती है और उपशमादि परिणामोकी विशुद्धिमे निमित्त पडते है । विशुद्धि के तरतमाशका चित्रण कर्मसिद्धान्तके द्वारा किया जाता है। इसीसे कर्मसिद्धान्तके विश्लेषणने इतना वृहत् रूप लिया है।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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