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________________ ४६४ जैनसाहित्यका इतिहास पिकामें जिस कर्णाटक वृत्तिका उल्लेख है वह चामुण्डरायकी वह वृत्ति है जिसका उल्लेख गो० कर्मकाण्डकी अन्तिम गाथामें किया गया है । __ डॉ० ए० एन० उपाध्येने एक लेख 'गोम्मट शब्दके अर्थ विचार पर सामग्नी' शीर्षकसे इ० हि० क्वा०, जि० १६मे प्रकाशित कराया था। उसका अनुवाद जै० सि० भास्करके भा८, कि० २ में प्रकाशित हुआ था। उसमें कर्मकाण्डकी उक्त अन्तिम गाथाके सम्बन्धमें अपने नोटमें डॉ० उपाध्येने लिखा है-'इस गाथाकी रचना असन्तोपजनक है जीवतत्त्व प्रदीपिकाके अनुसार यह 'वीरमत्तडों' पढा जाता है । क्योकि वहाँ इसे 'राओ' का विशेषण कहा है। जीवतत्त्व प्रदीपिका' में 'जाकया देसी' का 'या देशी भाषा कृता' कर लिया गया है। प० टोडरमल्ल इत्यादि चामुण्डरायकी टीकाका इसे एक उल्लेख समझते है । नरसिंहाचार्यके अनुसार, चामुण्डरायने ऐसी कोई रचना नही की। इसका अर्थ केवल इतना होता है कि इस ग्रन्थकी कोई हस्तलिपि अभी तक प्रकाशमें नही आई है (2)! जीव० प्रदी०का प्रथम श्लोक स्पष्ट रूपमें कहता है कि इसका आधार एक कन्नड टीका पर है । हमारे पास इस कथनके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि यह चामुण्डरायकी कृति है। हमे मालूम है कि कन्नडमें गोम्मटसारकी टीका है जिसका नाम जीवतत्त्व प्रदीपिका है जिसे केशववर्णीने सन् १३५९ में रचा था । वे अभय सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे और धर्मभूषणके आदेशानुसार यह टीका की थी। वीर मार्तण्डी, जैसा कि गाथामें मिलता है देशीका विशेपण है और यह वृत्तिका नाम है। चामुण्डरायकी उपाधि भी वीरमार्तण्ड थी, जो उन्होने तोलम्बाके युद्धमें अपनी वीरता प्रदर्शित करके प्राप्त की थी। और यह असगत प्रतीत नहीं होता कि उन्ह ने इसका नाम अपनी एक उपाधिके नाम पर रक्खा हो। यदि हमारे देशी शब्दका अर्थ सत्य है तो इसका अर्थ है कि कन्नड जो कि एक द्रविड भाषा है एक प्राकृतभाषाके लेखकके द्वारा देशी नामसे सम्बोधित की गई है।' उक्त उद्धरणसे स्पष्ट है कि डॉ० उपाध्ये भी इस वातसे सहमत है कि उक्त गाथाका वीरमार्तण्डी देशीका विशेषण है और वृत्तिका नाम है । अत उक्त गाथाका जो अर्थ समझा गया वह एकदम गलत तो नही समझा गया। किन्तु चामुण्डरायकी इस प्रकारकी किसी कृतिका कोई उल्लेख अन्यत्र नही मिलता ।। गोमट्टसार पर अब तक दो सस्कृत टीकाएँ प्रकाशमें आई है, उनमेंसे एकका नाम मन्द प्रवोधिका है और दूसरीका जीव तत्त्व प्रदीपिका । ये दोनो टीकाएँ गान्धी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला कलकत्तासे प्रकाशित गोमट्टसारके शास्त्राकार संस्करणमें प० टोडरमलजीकी हिन्दी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिकाके साथ १ जै० सि० भा० ८, कि० २, पृ० ९० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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