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________________ ४५८ · जनसाहित्यका इतिहास २६-'श्रीमूलसघे भ० लक्ष्मीचन्द्र तत्पट्टे भ० वीरचन्द तत्पट्टे भ० ज्ञानभूपणोपदेशात् ।' __यही ज्ञानभूपण सिद्धान्तसार भाज्यके रचयिता है। उक्त दोनो गुरुपरम्परायें पमनन्दीसे प्रारम्भ होती है । जिसमे प्रकट होता है कि पद्मनन्दीके दो शिष्य थे सकलकीति और देवेन्द्रकीति । ५० परमानन्दजी' ने लिखा है कि पद्म नन्दीके गियोमे मतभेद हो जानेके कारण गुजरातकी गद्दीकी दो परम्परायें चालू हो गई थी। एक भट्टारक सकलकीतिकी और दूसरी देवेन्द्रकीर्ति की । सकलकी तिसे ईडरको गद्दीकी परम्परा चली और देवेन्द्रकीतिमे सूरतकी गद्दीकी परम्परा चली। देवेन्द्रकीर्तिके उत्तराधिकारी भट्टा० विद्यानन्दि थे। इनके मूर्ति लेख वि० स० १४९९ से वि० स० १५२३ तकके पाये जाते है। विद्यानन्दिके उत्तराधिकारी मल्लिभूपण थे। सूरत आदिके मूर्तिलेखोंमे जाना जाता है कि मल्लिभूपण वि० स० १५४४ मे भट्टारक पद पर आसीन थे। सूरत जैनमन्दिरके दो प्रतिमालेसो पर वि० स० १५४४ वैसास सुदी तीज अकित है । किन्तु एक शिलालेसमें भुवनकीतिक गिण्य ज्ञानभूपणका नाम है और दूसरेमें भट्टारक विद्यानन्दिके भिण्य भट्टारक मल्लीभूपणका नाम है। अर्थात् जिस समय ईडरकी गद्दीके भट्टारक पद पर ज्ञानभूपण थे तव सुरतकी गद्दी पर भ० मल्लिभूपण विराजमान थे। मल्लिभूपणके पश्चात् लक्ष्मीचन्द और लक्ष्मीचन्दके पश्चात् वीरचन्द और तव ज्ञानभूपण सूरतकी गद्दी पर बैठे। मल्लिभूपणके समकालीन ज्ञानभूषण वीस पच्चीस वर्ष तक ईडरकी भट्टारकी करनेके बाद मल्लिभूपणके दो उत्तराधिकारिोके पश्चात् पुन सूरतके भट्टारक पद पर प्रतिण्ठित हुए हो ऐसा तो सभव प्रतीत नही होता । अत ईडरके भट्टारक ज्ञानभूपणसे सूरतके भट्टारक ज्ञानभूपण जुदे ही होने चाहिये । अत सूरतवाले ज्ञानभूपण ही सिद्धान्तसार भाष्य और कर्मप्रकृति टीकाके कर्ता है। वे कब सूरतकी गद्दी पर बैठे यह ज्ञात नही हो सका। अन्य मूर्तिलेखोके प्रकाशमें आने पर ही उस पर प्रकाश पडनेकी पूर्ण आशा है। किन्तु इतना १ जै० प्र० स०, भा० १, पृ० १९। २ 'स० १५४४ वर्षे वैसाख सुदी ३ सोमे श्रीमूलसघे भ० श्री भुवनकीर्ति स्तत्पट्ट भ० श्री ज्ञानभूपणगुरू पदेशात्' ।-दान० माणि० पृ० ४५ । ३ स० १५४४ वर्षे वैसाख सुदी २ सोमे । श्रीमूलसंघे । सरस्वतीगच्छे बलात्कार गणे। भट्टारक श्री विद्यानन्दी देवा तत्पट्ट भट्टारक श्री मल्लीभूषण । -दा० मा०, पृ० ४३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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