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________________ ३० जैनसाहित्यका इतिहास का कथन किस लिये किया गया है । इमका समाधान करते हुए जयधवलाकारने कहा है कि पूर्व निर्दिष्ट जिन गाथाओमे यह वतलाया है कि अमुक-अमुक अधिकाग्मे अमुक-अमुक गाथा सम्बद्ध है, वे गाथाएं इन्ही दो गाथाओकी वृत्तिगाथा है अत इनके विना उनका कथन नही बन सकता। __ इस कथनमे यह स्पष्ट है कि अधिकार-निर्देशक गाथाओके पश्चात् ही अधिकागेमे गाथाओका निर्देश करनेवाली गाथाएं रची गई है, क्योकि मुत्रगाथामे वृत्तिगाथा पहले नहीं रची जा सकती । और वृनिगाथाका मूत्रगाथासे पूर्व निर्देश भी कुछ विचित्र-मा ही लगता है । __ अत अन्य व्याख्याकारोका यह कथन कि 'गाहामदे अमीदे' आदि प्रतिनावाक्य नागहस्तीका है, नितान्त उपेक्षणीय नही है । कसायपाहुडकी गाथाओका सूत्रत्व __ यह पहले लिख आये है कि १६ हजार पदप्रमाण कमायपाहुइको गुणधराचार्यने केवल १८० गाथाओमे निवद्ध किया था। इतने विस्तृत गन्यका इतनी थोडी गाथाओमें निवद्ध किये जानेमे उन गाथाओका सूत्रम्प होना स्वाभाविक ही है। इसीलिये गाथानम्बर २ मे 'वोच्छामि सुत्तगाहा' पदके द्वारा गाथाओके मुत्ररूप होनेका निर्देग किया गया है। ___'मूत्र' गन्दका इतिहास वनलाते हुए डा. विन्टर नीटम्ने लिखा है-'सूत्र' शब्दका म्ल अर्थ 'धागा' या 'डोरा' था, फिर 'योडेसे शब्दोम निबद्ध 'नियम' या 'उपदेग' हो गया। जैसे वस्त्र अनेक धागोमे बुना जाता है वैसे ही एक शिक्षणका क्रम इन सक्षिात नियमोमे गथित किया जाता है । इस प्रकारके मक्षिप्त सूत्रोमे ग्रथित बड़े ग्रन्थोको भी सूत्र कहा जाता है। ये ग्रन्थ केवल प्रयोगात्मक कार्योके काम आते है। इनमे अतिमक्षिप्त किन्तु सुष्ठुरीतिसे किमी ज्ञान-विज्ञानका ममावेश रहता है और इमलिये विद्यार्थी उन्हें मरलतामे स्मृतिमे रख सकते है। सभवतया भारतीयोके इन सूत्रोके ममान विश्वके ममम्त साहित्यमें दूसरी वस्तु नही है । कम-से-कम शब्दोमे अधिक-से-अधिक कहना इन सूत्रात्मक ग्रन्थोकी रचना करने वालोका कर्तव्य होता है । भाष्यकार पतञ्जलिकी इस उक्तिको प्राय. उद्धृत किया जाता है, जिसका आशय यह है कि सूत्रकार अर्धमात्राके लाघवसे उतना ही प्रसन्न होता है जितना पुत्रोत्पत्तिमे ( हि० इ० लि०, भा० १, पृ० ०६८-२६९) । ___ कमायपाहुडके गाथासूत्रोमे भी कम-से-कम गन्दोमे अधिक-से-अधिक कहनेका मफल प्रयास किया गया है, यदि ऐमा न किया जाता तो इतने विशाल ग्रन्थका इतनी थोडी गाथाओके द्वाग उपमहार करना सभव न होता। जैन माहित्यके अवलोकनसे यह प्रकट है कि द्वादशाग बडा विशाल था।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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