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________________ ४४२ जैनसाहित्यका इतिहास जिन रत्न कोशमें त्रिभगीमार नामक एक ग्रन्थका निर्देश है जिसे नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकका बतलाया है । उसके विवरणमें लिखा है कि इस ग्रन्थमें आगे लिखे विभाग है - १ आस्रवत्रिभगी, २ वन्धत्रिभगी ३ उदय - उदीरणात्रिभगी, ४ सत्तात्रिभागी, ५ सत्त्वस्थानत्रिभगी, ६ भावत्रिभंगी । इस ग्रन्थका निर्देश बम्बई रायल एशियाटिक सोसायटीकी बम्बई शाखामें स्थित हस्तलिखित प्रतियोकी विवरणात्मक सूचीसे जिन रत्नकोशमें लिया गया है। जिन रत्नकोशमे उसका विवरण देते हुए लिखा है कि त्रिभंगीमारके अन्तर्गत विभाग विभिन्न ग्रन्थ कर्ताओके द्वारा रचे गये है- प्रथम आस्रवत्रिभगीमें ६३ गाथाएँ है और वह श्रुतमुनिके द्वारा रचित है । द्वितीय वन्धत्रिभंगीमें ४४ गाथाएँ है और उनके रचयिता नेमिचन्द्र के शिष्य माधवचन्द्र है । तीसरी उदयत्रिभगीमें ७३ गाथाएं है और उसके कर्ता नेमिचन्द्र है ।' चौथी सत्तात्रिभगीमें ३५ गाथाएँ है और उनके रचयिता भी नेमिचन्द्र है । पाँचवी सत्त्वस्थानत्रिभगीमें ३७ गाथाएँ है और उनके रचयिता कनकनन्दि है । इस पर नेमिचन्द्रकी टीका भी है । अन्तिम भावत्रिभगीमें ११६ गाथाएँ है और यह भी श्रुतमुनिके द्वारा रचित है । आराकी उक्त त्रिभंगी उक्त त्रिभगीसार की ही प्रतिलिपि है । उसमें उक्त क्रमसे छहो त्रिभगियाँ सकलित है । किन्तु उसमें वन्धत्रिभगी, उदयत्रिभगी और सत्त्वत्रिभगीके कर्ताका नाम नही दिया है । गाथा सख्यामें भी कुछ अन्तर है । उक्त छहो त्रिभगीमेंसे आदि और अन्तकी त्रिभंगी तो श्रुतमुनि रचित है । एक सत्त्वस्थानत्रिभगी कनकनन्दि रचित है । यह कनकनन्दि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गुरुओमें से थे । शेष तीन त्रिभगी कर्मकाण्डसे सकलित की गई है । उनमें से एकका रचयिता नेमिचन्द्रके शिष्य माधवचन्द्रको बतलाया है और शेषका नेमिचन्द्र को । जैसाकि कर्मप्रकृतिके सम्बन्धमें विचार करते हुए लिख आये हैक्षपणासार संस्कृतके रचयिता माधवचन्द्र और उनके गुरु नेमिचन्द्र सैद्धान्ताधिप या संद्धान्ती ही उनके संकलयिता प्रतीत होते है । श्रुतमुनिकी रचनाएँ — भावत्रिभगी श्रुतमुनिके द्वारा रचित इस भावत्रिभंगीमें जीवके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक भावोका कथन गुणस्थान और मार्गणास्थानोमें ११६ गाथाओके द्वारा किया गया है । १ 'इदि गुणमग्गणठाणे भावा कहिया प्रवोह सुयमुणिणा । सोहंतु ते मुणिदा सुयपरिपुष्णा दु गुणपुण्णा ॥ ११६ ॥ ' - भा० त्रि०
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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