SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४३१ भेद वज्रर्षभनाराच सहननका अर्थ विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । कर्मविणकमें उसका अर्थ इस प्रकार किया है रिसहो य होइ पट्टो वज्ज पुण कीलिया मुणेयव्वा । उभो मक्कडवघं नाराय त वियाणाहि ॥१०९॥ यह गाथा जीव समास ग्रन्थसे ली गई है। अत इसे प्राचीन होना चाहिये । इसमें कहा है-ऋपभ पट्टको अर्थात् परिवेष्टन पट्टको कहते है । वज्रका अर्थ कील जानना चाहिये और दोनो ओरसे मर्कटवन्धको नाराच जानना चाहिये । अर्थात् जिसमें दो हड्डियाँ दोनो ओरसे मर्कटवन्धमे वधी हो, और पट्टकी आकृति वाली तीसरी हड्डीमे वेष्टित हों और ऊपरसे इन तीनो हड्डियोको वीधने वाली कील हो उस संहननको वज्रऋपभनाराच कहते है। दिगम्बर परम्परामें-सहनन अर्थात् हड्डी समूह, ऋपभ-वेष्टन, वज्रके समान अभेद्य होनेसे वज्रऋपभ कहलाता है । और वज्रके समान नाराचको वज्र नाराच कहते है । अर्थात् जिस सहनन नामकमके उदयसे वज्रमय हड्यिा , वज्रमय वेष्टनसे वेष्ठित और वज्रमय नाराचसे कीलित होती है वह वज्रपभ नाराच शरीर सहनन है ।' (पखं०, पु० ६, पृ० ७३) ___यह अर्थभेद बहुत पुराना प्रतीत होता है। इसी तरहका अर्थ भेद कुछ अन्य प्रकृतियोमें भी पाया जाता है । ___ इस कर्मविपाकको वृहत्कर्मविपाक भी कहते है। और इसे प्रथम प्राचीन कर्मग्रन्थ भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि देवेन्द्र सूरिने विक्रमकी तेरहवी शताब्दीके अन्तमें चार कर्मग्रन्थोकी रचना की थी जो नवीन कर्मग्रन्थ कहे जाते है । उन्हीके कारण पहलेके कर्मग्रन्थोको प्राचीन तथा वृहत् विशेपण दिया गया है जिससे दोनोका भेद परिलक्षित किया जा सके, क्योकि देवेन्द्र सूरिने अपने कर्मग्रन्थोको वही नाम दिया है । आचार्य गर्गर्षि आचार्य गपिने अपने सम्बन्धमें कोई जानकारी नही दी और न अन्य स्रोतसे ही उनके सम्वन्धमें कोई जानकारी मिलती है । उनके कर्मविपाककी दो संस्कृत टीकाएँ मुद्रित हो चुकी है उनमेंसे एक टीका तो अज्ञातकर्तृक है। उसके कर्ताके सम्वन्धमें कोई भी बात ज्ञात नही है। दूसरी टीका परमानन्द सूरिकी रची हुई है। यह कुमारपालके (स० ११९९-१२३०) राज्यमें वर्तमान थे। उनकी टीका की एक ताडपत्रीय प्रति स० १२८८ की लिखी हुई उपलब्ध है। और गर्षि कुमारपालसे पहले हो गये है । १ जै० सा० इ० (गु०), पृ० ३९० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy