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________________ उत्तरकालीन कर्म - साहित्य : ४२१ 'न मेरे में कवित्व है और न मैं छन्दका लक्षण ही कुछ जानता हूँ । अपनी भावनाके निमित्त मैंने आराधनासार रचा है ॥ ११४ ॥ तत्त्वसे अनजान देवसेनने जो कुछ भी इसमे कहा है, उसमें यदि कुछ आगम विरुद्ध कथन है तो मुनीन्द्र उसे शुद्ध करलें ॥११५॥ इस तरह देवसेनने दर्शनसारमें तो ग्रन्थके रचनास्थान तथा कालका निर्देश किया है किन्तु अन्य रचनाओमें वैसा नही पाया जाता । दर्शनसारमें अपनेको देवसेन गणि कहा है, तत्त्वसारमें मुनिनाथ देवसेन कहा है और आराधनासारमें केवल देवसेन कहा है । गणि और मुनिनाथ पदको एकार्थवाचक मान लेनेसे दोनोमें एकवाक्यता मानी जा सकती है । किन्तु जो विनम्रता आराधनासारकी अन्तिम गाथासे व्यक्त होती है, भावसग्रहमें उसका अभाव है । इसके सिवाय इन सबमे उन्होने अपने गुरुका नाम नही कहा, परन्तु भावसग्रहमें कहा है । परन्तु आराधनासारकी मगलगाथामें 'विमलयर गुणसमिद्ध', पदके द्वारा, दर्शनसारमे 'विमलणाण' पदके द्वारा, नयचक्रमें 'विगयमल' और 'विमलणाण सजुत्त' पदोके द्वारा गुरुके नामका उल्लेख किया गया है, ऐसा श्री जुगल किशोरजी मुख्तार' का मत है । अत वह भावसंग्रहको उक्त देवसेनकी ही कृति माननेके पक्षमें है । किन्तु प० परमानन्दजीका कहना है कि भावसग्रह दर्शनसारके रचयिता देवसेनकी कृति नही है, क्योकि दर्शनसार मूलसघका ग्रन्थ है । उसमें काष्ठासघ, द्रविडसघ, यापनीयसघ और माथुरसघको जैनाभास घोषित किया है । परन्तु भावसग्रह केवल मूलसघका मालूम नही होता क्योकि उसमें त्रिवर्णाचारके समान आचमन, सकलीकरण, यज्ञोपवीत, और पचामृताभिषेकादिका विधान है । इतना ही नही किन्तु इन्द्र, अग्नि, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष और सोमादिको सशस्त्र तथा युवतिवाहनसहित आह्वानन करने, वलि, चरु आदि पूजा द्रव्य तथा यज्ञके भागको बीजाक्षरयुक्त मत्रोंसे देनेका विधान है ।' उनका मत है कि अपभ्रंश भाषाका 'सुलोचना चरिउ' के कर्ताका भी नाम देवसेन है और उनके गुरुका नाम भी विमल सेनगणि है अत भावसग्रह उन्हीका हो सकता है । श्री प्रेमीजीने भी उनके इस मतको अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक पुस्तकके दूसरे सस्करणमे स्थान देते हुए लिखा है - ' एक और प्राकृतग्रन्थ भावसग्रह है जो विमलसेन गणिके शिष्य देवसेनका है । यह भी मुद्रित हो चुका है इसमें कई जगह दर्शनसारकी अनेक गाथाएँ उद्धृत है इसपरसे हमने अनुमान १ पु० वा० सू० की प्रस्ता० पृ० ५९ | देवसेनके लिये इस प्रस्तावनाके सिवाय 'जै० सा० इ०' ( पृ० १६८ ) देखना चाहिये |
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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