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________________ ४१८ - जैनसाहित्यका इतिहास ____ आगे ग्रन्थकारने श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिकी कथा दी है और लिखा है कि सौराष्ट्र देशकी बलभी नगरीमें वि०स० १३६ श्वेताम्बर सघकी उत्पत्ति हुई (गा० १३७) । यह कथा इससे पूर्वके किसी ग्रन्थमें नही मिलती । इसके सम्बन्धमें पीठिका भागमें विस्तारसे लिखा जा चुका है ।। अज्ञान मिथ्यात्वका कथन करते हुए लिखा है कि पार्श्वनाथ स्वामीके तीर्थमें मस्करिपूरण नामक ऋपि हुआ। वह भगवान महावीरके समवशरणमें गया । किन्तु उसके जानेपर भगवानकी वाणी नही खिरी। यह रुष्ट होकर समवसरणसे चला आया और बोला-मैं ग्यारह अगोका धारी हूँ फिर भी मेरे जानेपर महावीर की वाणी प्रवाहित नही हुई और अपने शिष्य गौतम गणधरके आनेपर प्रवाहित हुई। गौतमने अभी ही दीक्षा ली है वह तो वेदभापी ब्राह्मण है, वह जिनोक्त श्रुतको क्या जाने ।' अत उसने अज्ञानसे मोक्ष बतलाया । (गा० १६१ भगवान महावीर तथा गौतमबुद्ध के समयमें मक्खलि गोशाल और पूरणकश्यप नामके दो शास्ताओका उल्लेख त्रिपिटक साहित्यमें मिलता है । मक्खलिका सस्कृत रूप मस्करी माना जाता है। अत मस्करी और पूरण इन दोनो नामोको मिलाकर एक ही व्यक्ति समझ लिया गया जान पडता है। मक्खलि गोशाल नियतिवादी माना जाता है। इन पांचो मिथ्यात्वोका कथन करनेके पश्चात् चार्वाकके द्वारा स्थापित मिथ्यात्वका कथन है । चार्वाक चैतन्यको भूतोका विकार मात्र मानता है । ग्रन्थकारने इसे 'कौलाचार्यका मत कहा है। किन्तु यशस्तिलकके छठे आश्वासमे कौलिक मतको शैवतत्रका अग बतलाया है। लिखा है-'सव पेय अपेयोंमें और भक्ष्य अभक्ष्योमें नि शब्द चित्तसे प्रवृत्ति करना कुलाचार्यका मत है । इसीको उसमें त्रिक मत भी बतलाया है। त्रिक मतमें आराधक मनुष्य मास और मदिराका सेवन करके और वामागमें किसी स्त्रीको लेकर स्वय शिव और पार्वनीका पार्ट करता हुआ शिवकी आराधना करता है।' चूंकि चार्वाक भी पुण्य पाप, परलोक आदि नही मानता । इसीसे ग्रन्थकारने कौलिक मतको भी चार्वाक समझ लिया जान पडता है । चार्वाकके पश्चात् साख्य मतकी चर्चा है। उसमें लिखा है कि जीव सदा १ 'कउलायरिओ अक्खइ अत्थि ण जीवो हु कस्स त पावं । पुण्ण वा कस्स भवे को गच्छइ णिरयसग्गवा ॥१७२॥ भा०स० । २ 'सर्वेपु पेयापेयभक्ष्यादिपु नि शंकचित्तावृत्तात् इति कुलाचार्यका.। तथा च त्रिकमतोक्ति -।' य०च०, भा॰ २, पृ० २६९ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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