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________________ ४१६ · जैनसाहित्यका इतिहास है-अध करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीन करण, वन्धापसरण, सत्त्वापसरण ये दो अपसरण, क्रमकरण, कपायो आदिकी क्षपणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, सक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, और कृष्टिअनुभवन (गा० ३९२)। इन्ही अधिकारोके द्वारा उस क्रियाका कथन किया गया है। चारित्रमोहका क्षय करनेपर जीव वारहवे गुणस्थानमे पहुँचता है इसीसे उसका नाम क्षीणमोह है । क्षीणमोह होनेके पश्चात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्मको नष्ट करके तेरहवे गुणस्थानमे पहुँच जाता है और सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है। जव अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु शेप रहती है तो वह तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धात करके तथा उसका उपसहार करके शेष बचे चारो कर्मोकी स्थिति आयुकर्मके वरावर करके तीसरे शुक्लध्यानके द्वारा अयोगकेवली हो जाता है । और वहाँ सव कर्मोको नष्ट करके मुक्त हो जाता है। ____ जैसे इस ग्रन्थकी प्रथम गाथामें ग्रन्थकारने दर्शन लब्धि और चारित्रलब्धिको कहनेकी प्रतिज्ञा की है वैसे ही अन्तिम (६५२ में) भी कहा है कि वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स्य तथा अभयनन्दीके शिष्य नेमिचन्द्रने दर्शन और चारित्रकी लब्धि भले प्रकार कही। यहाँ भापा टीकाकार पं० टोडरमलजी ने 'लब्धिसार नामक शास्त्र विप कही' ऐसा लिखा है । अत इस ग्रन्थका नाम लब्धिसार ही है। किन्तु टीकाकार नेमिचन्द्रकी टीका गाथा ३९१ तक ही पाई जाती है जहाँ तक चारित्रमोहकी उपशमनाका कथन है। चारित्रमोहकी क्षपणा वाले भाग पर सस्कृत टीका नही है । अत भाषा टीकाकार प० टोडरमल जीने उसके प्रारम्भमें लिखा है 'इहाँ पर्यन्त गाथा सूत्रनिका व्याख्यान सस्कृत टीकाके अनुसार किया जात इहाँ पर्यन्त गाथानि ही की टीका करिकै सस्कृत टीकाकारने ग्रन्थ समाप्त कीना है। वहुरि इहा ते आग गाथा सूत्र है तिनि विप क्षायिकका वर्णन है तिनकी सस्कृत टीका तौ अवलोकन मैं आई नाही तातै तिनका व्याख्यान अपनी बुद्धि अनुसार इहाँ कीजिये है। बहुरि भोज नामा राजा वाहुवलि नामा मत्रीक ज्ञान उपजावनेके अथि श्रीमाधव चन्द्रनामा आचार्य करि विरचित क्षपणासार ग्रन्थ है । तिहि विप क्षायिक चारित्र ही का विधान वर्णन है सो इहाँ तिस क्षपणासारका अनुसार लिएँ भी व्याख्यान करिए है ।' माधवचन्द्र रचित क्षपणासारके अनुसार व्याख्यानके कारण लब्धिसारके इस भागको क्षपणासार नाम दे दिया गया जान पडता है । इस तरह आचार्य नेमिचन्द्र रचित गोम्मटसार तथा लब्धिसार एक तरहसे
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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