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________________ उत्तरकालीन कर्म - साहित्य • ३९९ अपेक्षा कषायके भेदोंका कथन किया गया है जो प० स० में नही है । ओर जी० का० में ज्ञानमार्गणाका कथन तो वेजोड है । श्रुतज्ञानके बीस भेद जो उसमें वतलाये है उनका कथन पट्खण्डागमके वेदनाखण्ड और उसकी धवलासे लिया गया है । यह कथन श्वेताम्बर साहित्यमे भी नही मिलता । इसी तरह अवधिज्ञानके भेदोंका कथन भी बहुत विस्तृत हैं । ज्ञानमार्गणाकी गाथा सख्या १६६ है | पं० स० में केवल १० गाथाएं इस प्रकरणमें है । इसी तरह जी० का ० में लेश्यामार्गणा भी बहुत विस्तृत है और लेश्याओका कथन बहुत विस्तारसे किया है । सम्यक्त्वमार्गणामें सम्यक्त्वके भेदोका तथा उनके सम्बन्धसे द्रव्यों और नो पदार्थोंका कथन वहुत विस्तृत है । इसमें तत्त्वार्थसूत्रके पांचवें अध्यायका तो सभी आवश्यक कथन सगृहीत कर दिया गया है । उसके अतिरिक्त भी वहुत सा कथन सगृहीत किया गया है । इस तरह जीवकाण्डमें 'गागर में सागर' की कहावत चरितार्थ की गई है । उसका सकलन बहुत ही व्यवस्थित, सन्तुलित और परिपूर्ण है । इसीसे दिगम्बर साहित्य में उसका विशिष्ट स्थान रहा है । उसीके कारण पचसग्रह और जीवस्थानके ओझल हो जानेपर भी उनका अभाव नही खटका और लोग एक तरहसे उन्हें भूल ही गये । कर्मकाण्ड गोम्मटसारके दूसरे भागका नाम कर्मकाण्ड है । इसके दो सस्करण प्रकाशित हुए है । रायचन्द शास्त्रमाला बम्बईसे प्रकाशित सस्करणमें मूल तथा हिन्दी टीका है । और हरिभाईदेवकरण शास्त्रमालासे प्रकाशित सस्करणमें मूलके साथ सस्कृत टीका और उस संस्कृत टीकाके आधारपर ढुंढारी भाषामें लिखी हुई टीका दी गई है । उसकी गाथासख्या ९७२ है । उसमें नो अधिकार है - १ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २ वन्धोदयसत्त्व, ३ सत्त्वस्थानभग ४ त्रिचूलिका, ५ स्थानसमुत्कीर्तन, ६ प्रत्यय, ७ भावचूलिका ८ त्रिकरणचूलिका और ९ कर्मस्थिति " रचना । १ प्रकृतिसमुत्कीर्तन इसका अर्थ होता है आठो कर्मो और उनकी उत्तरप्रकृतियोका कथन जिसमे हो । यत कर्मकाण्डमे कर्मो और उनकी विविध अवस्थाओका कथन है अत पहले अधिकारमें यह बतलाते हुए कि जीव और कर्मका सम्वन्ध अनादि है कर्मोक आठ भेदोके नाम, उनका कार्य, उनका क्रम, उनकी उत्तरप्रकृतियोमेंसे कुछ विशेष प्रकृतियोका स्वरूप, वन्धप्रकृतियों, उदयप्रकृतियो और सत्वप्रकृतियोकी सख्यामें अन्तरका कारण, देशघाती, सर्वघाती, पुण्य और पापप्रकृतियाँ, पुद्गलविपाकी,
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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