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________________ ३९६ जैनसाहित्यका इतिहास ४ जत्तु जदा जेण जहा जस्म य णियमेण होदि तत्त, तदा । तेण तहा तस्स हवे ऽदि वादो णियदिवादो दु ॥८८२॥ यथा यदा यत्र यतोऽस्ति येन यत् तदा तथा तन ततोऽस्ति तेन तत् । स्फुट नियत्येह नियत्र्यमाण परो न शक्त किमपीह कतुम् ॥३११॥ ५ को कर कटयाण तिक्सत्त मियविहगमादीण । विविहत्त तु सहाओ इदि सबपि य सहाओ ति ॥८८३॥ क स्वभावमपहाय वक्रता कटकेपु विहगेपु चित्रताम् । मत्स्यकेपु कुरुते पयोगति पकजेपु सरदण्डता पर ॥३१०॥ इसके सिवाय अन्य भी कई वाते है जो गोम्मटमार जीवकाण्डसे ली गई जान पटती है । जीवकाण्डमै कपायमार्गणामें पचगग्रहसे कुछ विशेप कथन किया है। इस कथनको करने वाली कोई गाथा धवलामे भी हमारे देखने में नही आई । उस कथनको करने वाली जीवकाण्डमें यह गाथा विशेप है णारय-तिरिक्स-गर-सुर-गईसु उप्पण-पढम-कालम्मि । कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वा पि ॥२८७॥ इसी वातको सं० पञ्च सग्रहमें इस प्रकार कहा गया है क्रुद्ध श्वश्रेपु तिर्यक्षु मायाया प्रथमोदय । जातस्य नृपु मानस्य लोभस्य स्वर्गवासिपु ॥२१०॥ आचार्या निगदन्त्यन्ये कोपादि प्रथमोदये। भ्रमतो भवकान्तारे नियमो नास्ति जन्मिनाम् ॥२११॥ पहले श्लोकमें उक्त गाथाके तीन चरणोका अनुवाद है और 'अणियमो वाऽपि' इस चतुर्थ चरणके आशयको दूसरे श्लोकसे स्पष्ट किया गया है। ___ इसी तरह जीवकाण्ड-योग मार्गणामें आहारक शरीरके आकारादिके सम्बन्धमें जो विशेप कथन किया गया है वह सब स० १० स० में भी यथास्थान वर्तमान है। जीव काण्डमें कहा है सुह सठाण धवल हत्यपमाण पसत्थुदय ॥२३७॥ अव्वाघादी अतोमुहुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे ।' स०प० स० मे इसका अनुवाद इस प्रकार है 'य प्रमत्तस्य मू|त्यो धवलो धातुवर्जित । अन्तर्मुहूर्तस्थितिक सर्वव्याघातविच्युत ॥१७६॥ पवित्रोत्तमसंस्थान हस्तमात्रोऽनघद्युति ।'
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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