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________________ २४ जैनसाहित्यका इतिहास ओहारा व्याख्यान किया। मगलाचरणके पश्नात् आदिवाइयगं ही गुणधका गुणगान करते हुए वह लिखते है- 'जानप्रवाद पूर्वक निर्मल दगवे वस्तु-अधिकारके तीसरे कपायप्राभृतरूपी समुद्रके जलगमूहगे धोये गये मतिज्ञानम्पी लोचनीसे जिन्होने त्रिभुवनको प्रत्यक्ष कर लिया है ऐसे गुणधर भट्टारना है और उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओमे सम्पूर्ण कपायप्राभतका अर्थ गमाया हुआ है। आगे पुन वीरसन स्वामीने तीसरे कपायप्राभृतको महाममद्रकी उपमा दी है और गुणवरको उमका पारगामी बतलाया है। किन्तु धवलाम धग्गेनाचाया प्रति उग प्रकारके उद्गार दृष्टिगोचर नहीं होते । इन वातोसे प्रतीत होता है कि गुणवर पूर्वविदोकी परम्परामेगे थे। किन्तु धरसेन पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदो की परम्परामेमे नहीं थे। दूगरे, वग्गनकी पेक्षा गुणधर अपने विपयके विशिष्ट अथवा पूर्ण जाता थे और इसका कारण यह हो सकता है कि गुणधर ऐसे समयमे हुए थे जब पूर्वा आगिक ज्ञानमै उतनी कमी नहीं आई थी जितनी कमी धरसेनके गमयमे आगयी थी । उन गब बातोपर विचार करनेसे गुणधर धरसेनमे पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं। ____ इस विषयमे एक वात और भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है। उन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमे लिखा है कि 'भूतवलि आनार्यने पटसण्टागमकी रचना करके उसे पुस्तकोमे न्यस्त किया और ज्येष्ठ शुक्ला पचमोके दिन चतुर्विध मधके साथ उसकी पूजा की । उसके कारण यह तिथि श्रुतगचमीके नाममे ख्यात हुई । आज भी जैन उम दिन श्रुतकी पूजा करते है।' धरसेनाचार्यने मुनिमघको पत्र लिखकर दो मुनियोको बुलाया था और पटालिसाकर उन्हे योग्य बनाया था। उन्होने अधीत आगमो आधारमे ग्रन्थरचना करके उसको पुस्तकोमे न्यस्त कराया, अत सधके द्वारा उसका उत्सव मनाया जाना उचित ही था। किन्तु गुणधरने तो स्वय ही दोसी तेतीस गाथाओमे समस्त कपायप्राभृतको निवद्ध किया था। और उन्हे पुस्तकोमे भी न्यस्त नही किया था, क्योकि जयधवलामे लिखा है कि आचार्यपरम्परासे आती हुई वे गाथाएँ आर्यमक्षु और नागहस्तीको प्राप्त हुई। और उन दोनोके पादमूलमे उनके अर्थको सम्यक् प्रकारसे सुनकर यतिवृपपभने उनपर चूणिसूत्र बनाये । १ 'पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरपराए आगच्छमाणाओ अज्जमखुणाग । हत्यीण पत्ताओ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले अत्य मम्म मोऊण जयिवसहभडारपण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्त कय'-क० पा०, भा० १, गा० १, पृ० ८८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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