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________________ उत्तरकालीन कर्म - साहित्य : ३८५ विचारणीय बात यह है कि कनक नन्दि आचार्यने ४८ या' ५१ गाथा प्रमाण विस्तरसत्व त्रिभगी ग्रन्थ क्या पृथक् रचा था और वादको उसे नेमिचन्द्राचार्य ने अपने गोम्मटसारमें सम्मिलित कर लिया अथवा कर्मकाण्डके लिये ही उन्होने इस प्रकरणकी रचना की ? उक्त दोनो वातोमेंसे दूसरी वात ही विशेष सगत प्रतीत होती है क्योकि कनकनन्दि भी सिद्धान्त चक्रवर्ती थे, यह वात त्रिभगीकी अन्तिम गाथासे जो कर्मकाण्डमें भी है, स्पष्ट होती है । ऐसे महान् आचार्यके द्वारा इतना छोटा-सा ग्रन्थ स्वतन्त्र रूपसे रचे जानेकी सभावना ठीक प्रतीत नही होती । अत यही विशेष सभावित प्रतीत होता है कि उन्होने गोम्मटसारके लिये हो उस प्रकरणको रचा और पीछे उसमें यथास्थान स्पष्टीकरणके लिये कुछ गाथाओको बढाकर उसे एक स्वतंत्र प्रकरणका रूप भी दे दिया । अत गोम्मटसारकी रचना कनकनन्दि आचार्यका भी योगदान था । त्रिभगीकी अन्तिम गाथा नेमिचन्द्राचार्यकी बनाई हुई हो सकती है जिसमें कहा है कि इन्द्रनन्दि गुरुके पासमें सम्पूर्ण सिद्धान्तको सुनकर कनकनन्दि गुरुने सत्व स्थानका कथन किया । यहाँ कनकनन्दिके साथ गुरु शब्दका प्रयोग इसी बातका सकेत करता है । कनक नन्दिके गुरु इन्द्रनन्दि थे । और इन्द्रनन्दिके गुरु अभयनन्दि थे । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गुरु अभयनन्दी सिद्धान्त शास्त्रोके ज्ञाता थे । अत जैनेन्द्र महावृत्तिको हमने इस दृष्टिसे देखा कि उसमें सिद्धान्त शास्त्र विषयक कोई उदाहरण है या नही ? खोजने पर सूत्र १।३।५ की वृत्ति में 'प्राभृतपर्यन्तमधीते' एवं 'सवन्ध सटीकम्' उदाहरण महत्वपूर्ण है । इसके सम्बन्धमें डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवालने अपनी भूमिका ( पृ० ९) में लिखा है - 'यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्राभूतसे तात्पर्य महाकर्म प्रकृतिप्राभूतसे था, जिसके रचयिता आ० पुष्पदन्त तथा भूतवलि माने जाते है । ( प्रथम द्वितीय शती) । इसीका दूसरा नाम षट्खण्डागम प्रसिद्ध है । इसीका भाग विशेष बन्ध या महाबन्ध ( महाधवल सिद्धान्तशास्त्र ) था जिसके अध्ययनसे यहाँ अभयनन्दीका तात्पर्य ज्ञात होता है । अर्थात् उस समय भी विद्वानोमे प्राभृत या पट्खण्डागमसे पृथक् महावन्धका १ श्रीप्रेमीजीने लिखा है कि 'प० जुगलकिशोरजी मुख्तारके अनुसार जैन सिद्धान्त भवन आरामें कनकनन्दिका रचा हुआ 'त्रिभगी' नामका एक ग्रन्थ है । जो १४०० श्लोक प्रमाण है (जै० सा० इ०, पृ० २०९ ) । और टिप्पणमे जैन हितैषी भाग १४, अक ६ का निर्देश किया है । हमने उसे देखा उसमें मुख्तार साहवने जै० सि० भवनकी सूचीके आधार पर उक्त निर्देश किया था इसीसे पुरातन जैनवाक्य सूचीकी अपनी प्रस्तावनामें उन्होने त्रिभंगीके परिमाण के सम्बन्धमे उक्त निर्देश नही किया । अत त्रिभगीका १४०० श्लोक प्रमाण कथन भ्रामक है । २५
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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