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________________ अन्य कर्मसाहित्य : ३६७ ने भी शतकका व्याख्यान किया है, तथापि उनकी चूणियां अति गम्भीर है।' यहां उन्होने 'चूर्णिकार' और 'चूणिनाम्' लिखकर बहुवचनका प्रयोग किया है। जिससे प्रकट होता है कि शतकपर अनेक चूर्णियाँ थी। किंतु दो चूणियोंके ही उल्लेख मिलनेसे यह स्पष्ट है कि शतकपर दो चूणियाँ अवश्य थी और उनमें सैद्धातिक मतभेद भी था। उपलब्ध 'लघुचूणिमें वेदक, मोपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोमें संज्ञीपर्याप्तक और सज्ञी अपर्याप्तक दो जीवसमास बतलाये है। किंतु हेमचन्द्रने अपनी वृत्तिमें 'अन्य' करके औपशमिक सम्यग्दृष्टिके सज्ञि अपर्याप्त होनेका निर्देश किया है किंतु इसे मान्य नहीं किया और अपने समर्थनमें वृहच्चूणिके मतका उल्लेख किया है। उसमें लिखा है कि जो 'उपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणिमें मरण करता है वह प्रथम समयमें ही सम्यक्त्वपुञ्जको उदयावलीमें लाकर उसका वेदन करता है । अत उपशमसम्यग्दृष्टी अपर्याप्त नहीं होता। शतक गाथा ३५ में दश गुणस्थानमें शुक्लध्यान बतलाया है । श्वेताम्बर परम्परामें इस विपयमें मतभेद है । अत' लघुचूणिमें लिखा है कि श्रेणिमें धर्म और शुक्ल दोनो हो सकते हैं । उसीको लेकर हेमचन्द्रने अपनी वृत्तिमें लिखा है कि लघुणिके अनुसार श्रेणिमें स्थित जीवके धर्म और शुक्ल ध्यान दोनो ही अविरुद्ध हैं। किन्तु वृहणिका अभिप्राय है कि सरागीके चाहे वह सूक्ष्म सराग भी हो, धर्मध्यान ही होता है। १ 'समत्ते ति, सम्मदिछी खइग-वेयगउवसम-सासण-सम्मामिच्छ-मिच्छदिठीय, तत्य वेयग उवसम-खइयसम्मट्ठिीसु दो दो जीवाणाणि सन्निपज्जत्त-अपवत्तगाणि ।' श० चू०, पृ० ५। २. 'अन्ये तु सशिपंचेन्द्रियस्यापर्याप्तकस्याप्यौपशमिकसम्यक्त्व यर्णयन्ति, तच्च नाव गच्छामस्तथाहि .. उपशमश्रेणी मत्वाऽनुत्तरसुरेपूत्पन्नस्यापर्याप्तकस्यैतल्लभ्यते इति चेत् । ननु एतदपि न बहुमन्यामहे तस्य प्रथम समये एव सम्यक्त्वपुद्गलोदयात् । उक्तं च वृहच्चूर्णावस्मिन्नेव विचारे-'जो उवसम्मसम्मट्ठिी उवसमसेढीए काल करेइ, सो पढमसमये चेव सम्मत्त पुंज उदयावलियाए छोडूण सम्मत्तपुग्गले वेएइ,तेण न उवसमसम्मविट्ठी अपज्जगो लब्भइ ।' इत्यादि ।'-२० वृ०, पृ० १०-११ । ३ 'सुक्कज्झाणग्गहण किणिमित्त इतिचेत् ? भन्नइ, सेढीए धम्मसुक्कज्झाणाइ सवि गप्पाइ अविरुद्धाइत्ति 'तद्वोधनार्थं तु सुक्कज्झाणग्गहण ।'-श० चू०, पृ० १७ । ४. श्रोणि व्यवस्थितस्य हि जन्तोधमशुक्लध्यानद्वयमपि लघुचाद्यभिप्रायेणाविरुद्धमिति शुक्लध्यानस्यपि ग्रहणमिह न विरुध्यते-वृहच्चूयभिप्रायस्तु सरागस्य सूक्ष्मसरागस्यापि धर्मध्यानमेव-२००, पृ० ३७ । -- -
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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