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________________ कसायपाहुड २१ दोनोकी कालगणनामे ११८ वर्षका अन्तर है। ___ उक्त ग्रन्थोके अनुसार महावीर निर्वाणके पश्चात् क्रमश ६२ वर्षमे तीनकेवली, १०० वर्पोमे पाँच श्रुतकेवली और १८३ वर्पोम ग्यारह दसपूर्वी हुए। न०प० मै भी यहाँ तक कोई अन्तर नही है । आगे उक्त ग्रन्थोमे पाँच एकादशागधारियोका काल २२० वर्ष और चार एकागधारी आचार्योका काल ११८ वर्ष बतलाया है, जो अधिक प्रतीत होता है। किन्तु न० पट्टा० में ५ ग्यारह अगधारियोका काल १२३ वर्प और चारका काल ९९ वर्ष बतलाया है जिसमें २ वर्ष की भूल होनेसे ९७ वर्प होते है, अत ११८ वर्पका अन्तर स्पष्ट है । इन ११८ वर्पोमें क्रमसे अर्हद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतवलि हुए । इस प्रकार इस पट्टावलीके अनुसार धरसेनका समय गीर-निर्वाणसे ६१४ वर्ष पञ्चात् आता है । पट्टावली में धरसेनका काल १९ वर्ष, पुष्पदन्तका तीस वर्प और भूतवलिका वीस वर्प बतलाया है। अत इन तीनोका समय वीरनिर्वाणके पश्चात् ६१४से ६८३ वर्पके अन्दर आता है। पीछे धवलासे जो श्रुतावतारका आख्यान दिया है उससे यह स्पष्ट है कि धरमेनाचार्य मत्रशास्त्रके भी विद्वान थे। उनके द्वारा रचित एक जोणिपाहड नामक ग्रन्थका निर्देश १५५६ वि० सम्वत्मे लिखी गई बृहट्टिप्पणिका नामक सूचीमे पाया जाता है। उसमें उसे धरसेनके द्वारा वीरनिर्वाणसे ६०० वर्ष पश्चात् रचा हुआ लिखा है। इससे भी नन्दी० पट्टा० क धरसेनविपयक समयकी पुष्टि होती है। अतः वरसेनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दीका पूर्वार्द्ध प्रमाणित होता है। __ पहले लिख आये है कि वीरसेनने वीर-निर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद गुणधर और धरसेनका होना बतलाया है। और इन्द्रनन्दिके कथनसे यह स्पष्ट है कि इन दोनो आचार्योकी गुरुपरम्परा विस्मृतिके गर्तमे जा चुकी थी। फिर भी जो वीरसेन स्वामीने उक्त दोनो आचार्योका उक्त समय बतलाया है वह सभवतया इस आधारपर बतलाया है कि अगज्ञानके रहते हुए उसे लिपिवद्ध करनेका कोई प्रयत्न नही किया गया। अगज्ञानियोकी परम्परा समाप्त हो जानेपर जब श्रुतविच्छेद, 'अहिवल्लि माधनटि य धरसेण पुप्फयत भूतवली । अटवीस हगवीन उगणाम तीस नीस वास पुणो ॥१६ ।। इसासय अठार वासे इयगधारी य मुणिवरा जादा । छ मय तिरामिय वासे णिव्वाणा अगदिति कहिय जिणे ॥१७॥' न०प० इम पट्टावली तथा धरसेनके ममयकी विवेचनाके लिए देखें-पट्स० पु. १, की प्रस्तावना, तथा 'समन्तभद्र' पृ० १६१ । • 'योनिप्रामृत वीरात ६०० धारमेलम् ।' वृह टिप्प०, जैन सा०म० भाग ", ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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