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________________ अन्य कर्मसाहित्य • ३४९ अत जब शतकचूणि चन्द्रपि महत्तर रचित है तो स्पष्ट है कि उनके द्वारा रचित पञ्चसग्रहसे प्रकृत पचसग्रह प्राचीन है और सम्भवतया उसीसे उन्हें शतकादि ग्रन्थोके आधारपर पचसंग्रह रचने की प्रेरणा मिली होगी । यद्यपि चन्द्रपि का भी समय सुनिश्चित नही है फिर भी उसकी स्थिति चिन्त्य है। ५ अकलक देवके तत्त्वार्थवार्तिकमे नीचे लिखी दो गाथाएं उद्धृत है सव्वट्टिदीण मुक्कस्सगो दु उक्कस्स सकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो आउगतिगवज्ज सेसाण ।।-(त० वा०, पृ० ५०७) शुभपगदीण विसोधिए तिव्वमसुहाण सकिलेसेण । विपरीदे दु जहण्णो अणुभागो सव्वपगदीण ॥-(त० वा० पृ० ५०८ ) ये दोनो गाथाएँ पंचसग्रहके चतुर्थ शतक नामक अधिकारकी क्रमश. ४१९ और ४४५वी गाथाएं है । किन्तु ये दोनो गाथाएं शतक प्रकरणमें भी वर्तमान है और उनका नम्बर क्रमश ५७ और ६८ है । अत यह कहा जा सकता है कि ये गाथाएं शतक प्रकरण से न लेकर पञ्चसनहसे ही ली गई है इसमें क्या प्रमाण है? इस सन्देहको दूर करनेके लिए पचसग्रह और तत्त्वार्थवार्तिक में निर्दिष्ट सैद्धान्तिक चर्चा में उतरना होगा। शतक प्रकरणकी ७वी गाथामें सज्ञी पर्याप्तकके पन्द्रह योग बतलाये है । शतक चूर्णिमें उसका खुलासा करते हुए लिखा है कि-'एक अर्थात् सज्ञी पर्याप्तके पन्द्रह योग होते हैं-मनोयोग ४, बचनयोग ४, औदारिक, वैक्रियिक और आहारक काययोग तो प्रसिद्ध ही है । औदारिक मिश्रकाय योग और कार्मणकाययोग सयोग केवलीके समुद्धातकालमें होते है । वैक्रियिक मिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाय योगाविक्रिया करनेवाले तथा अहारक शरीर उत्पन्न करनेवालोके होता है और वे पर्याप्तक ही होते है । इस तरह पर्याप्त अवस्थामें वैक्रियक मिश्र भी माननेसे सज्ञी - पर्याप्तकके पन्द्रह योग शतकमें बतलाये है । किन्तु पचसग्रहगत उक्त शतकवाली गाथामें पण्णरसकी जगह 'चउदस' पाठ है जो बतलाता है कि सज्ञी पर्याप्तकके चौदह योग होते है, वैक्रियिक मिश्र काययोग नही होता। प० स० की भाष्य १ एक्कम्मि सन्निपज्जत्तगम्मि पन्नरस वि योगा भवन्ति । मणजोग (गा) वइजोग (गा) '४' ओरालिय वेउन्विय अहारक कायजोगा पसिद्धा, ओरालियमिस्सकायजोगो कम्मइग कायजोगो य सयोगकेवलिं पडुच्च समुग्घायकाले लब्मन्ति, वेउन्विय मिस्सकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो य वेउब्धिय आहारगे विउन्वन्ते आहारयन्ते त पडुच्च, ते पज्जत्तगा चेव ।-श. चु०, पृ०६। सन्नि अपज्जत्त सुवेउन्वियमिस्स काय जोयो दु। सण्णीसु पुण्णेसु य चउदस जोया मुणेयन्वा ॥४२॥-स० स० ४ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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