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________________ ३३६ - जैनसाहित्यका इतिहास उसमें उक्त गाथाएँ नही है । फर्मस्तव की २, ३ गाथाका नम्बर इसी से इस अधिकारमें ९-१० है । इन दोनो गाथाओमें प्रत्येक गुण स्थानमें बन्धमे व्युफिटन्न होने वाली कर्मप्रकृतियोकी सख्या वतलाई है । ___ गाथा ११-१२ कर्मस्तवमे नही है । इन गाथाओमें कहा है कि तीर्थदर और आहारकाद्विक को छोडकर शेप कर्मप्रकृतियोका बन्य मिथ्यादृष्टिके होता है। कर्मस्तवमें गुणस्थानो में कर्मों को बन्धन्युच्छिति, उदयव्युच्छिति, उदीरणाव्युच्छित्ति और सत्त्वव्युच्छित्तिको बतलाने वाली गाथामोको, जिनकी क्रमसख्या २ से ८ तक है, एक साथ कहकर पीछे क्रमवार बन्धादिका कथन किया है और पं स के इस अधिकार में बन्धव्युच्छित्ति दर्शक गाथामो को बन्ध प्रकरणके आदि में, उदय-उदीरणा व्युच्छित्ति दर्शक गाथामो को उदय-उदीरणा प्रकरण के मादि में और सत्वन्युच्छित्ति दर्गक गाथामो को सत्व प्रकरण के आदिमें दिया है। इसी से इस अधिकारमे कर्गस्तवकी गा० २, ३ को क्रम संख्या ९-१०, ४ की क्रम सं० २७, ५ की ४८ और ६-७, ८ को क्रम संख्या ४९, ५०, ५१ हो गई है जो बतलाती है कि इस अधिकारमें १३ से २६ गाथा तक वन्धका, २७ से ४३ गाथा तक उदयका, ४४ से ४८ तक उदीरणाका और ४९ से ६३ तक सत्ता का कथन है । ६४वी गाथा जो कि कर्मस्तवको अन्तिम गाथा है, मगलात्मक है। इस गाथाके पश्चात् इस अधिकार में १३ गाथाएँ और है । उनमें यह बतलाया है कि उदय व्युच्छित्तिसे पहले जिनकी वन्ध व्युछित्ति होती है, उदय व्युच्छित्तिके पश्चात् जिनकी वन्ध ज्युच्छित्ति होती है और उदय व्युच्छित्तिके साथ जिनकी वन्धव्युच्छित्ति होती है, ऐसी प्रकृतियां कौनसी है। इसी तरह स्वोदयबन्धी, परोदयबन्धी, उभयवन्धी, निरन्तरबन्धी, सान्तर वन्धी और उभयवन्धी प्रकृतियां कोनसी है, इन नौ प्रश्नो का समाधान किया गया है। __ चौथे अधिकारका नाम शतक है जवकि इस अधिकारकी गाथा सख्या ४२२ है । इस नाम का कारण यह प्रतीत होता है कि इस अधिकारमें बन्ध शतक नामक अथ समाविष्ट है। उसकी प्रथम गाथा इसकी तीसरी गाथा है । उससे पहले दो गाथाएँ और है जिनमें से प्रथम गाथामें वीर भगवानको नमस्कार करके श्रुतज्ञान से 'पद' कहने की प्रतिज्ञा की गयी है । बन्ध शतकका विषय परिचय पहले करा आये है अत उससे इसमें जो विशेप कथन है उसे ही बतलाया जाता है। बन्ध शतककी गाथा २ से ५ तक इसमें यथाक्रम दी गयी है । ५ वी गाथा में कहा है कि तिर्यञ्च गतिमें चौदहो जीव समास होते है और शेष गतियो में दो दो जीव समास होते है । इस प्रकार मार्गणाओ में जीव समास जान लेने चाहिए।' पञ्चसग्रहके कर्ताने १२ गाथाओके द्वारा चौदह मार्गणाओ में जीव समासोका
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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