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________________ -- -- ३२० : जेनगाहित्यका तिहाग रचयिता तथा रचनाकाल म गति को रगना गिने गो गा गी अशा है। णि गंग में भी उरा गोई नही है । गितु गिलगे और पता दोनों पारम्भ और अन्तगे एकापता गो र पायी जाती है। पर की तरह गानतिमा आदिम भी मगल नही गिया गया है। मतगणी गागा १०४ में उसे गर्मप्रचार शुनमागरका निगन्न गा है। गन्ततिकागो प्रथम गागामें गेष्टिना नियन गाहा।। गप्तति पहली बार मन्तिम गाया ग प्रकार है নিরা মিন যাণঠাগাগ। वोच्छ सुण गंगे गोराब वियागरग ॥१॥ जो जत्य अपरिपुन्नी अत्यो अपागमेण पोत्ति । स गगिऊण रहगा पूरे अण परिपातु ॥७२॥ शतापी आदि तथा मन्तिम गायाएं ग प्रकार है मुणा इस जीवगुण गानाएगु गणेशु सारजुताओ। वोच्छ करण्यामओ गाहामो पिटुटोगगाओ ॥१॥ ऐसो बधनमागो विन्दुरोण बन्निओ कोइ । कम्मप्पवायसुयगागरस्म णिस्सदमेतामो॥१०४॥ वयविहाणामामो रइयो अप्पसुयमद मणा उ । तं वधमोक्सणितणा पूरेऊण परिकहेंति ॥१०५॥ यद्यपि भावगत तथा शन्दगत उक्त सादृश्य उल्लेसनीय है किन्तु उसके आधारपर कोई निष्कर्ष नही निकाला जा सकता। फिर भी इतना तो स्पष्ट रूपसे प्रतीत होता है कि शतककी तरह ही सप्ततिकाया रचनाकाल प्राचीन है । क्योकि जैसे जिनभद्रगणि क्षमा-श्रमणकी विशेषणवती कर्मप्रकृतिका निर्देश मिलता है वैसे ही सित्तरी' का भी निर्देश मिलता है । अत: यह निश्चित है कि कर्मप्रकृति और उसमें निर्दिष्ट शतककी तरह ही सप्ततिकाकी भी रचना विक्रमकी सातवी शताब्दीके पश्चात्को नहीं है। विषयपरिचय सप्ततिकाकी प्रथम गाथामें बन्धप्रकृति-स्थान, उदयप्रकृति-स्थान और सत्त्वप्रकृति स्थानका सक्षपसे कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है। कर्मप्रकृतिका विषय१ 'सयरीए मोहवठ्ठाणा-॥९०।। 'सयरीए दो विगप्पा" ॥९१ सयरीय पचविहवंधगस्स ..||९२॥ विशेषणवती।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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