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________________ अन्य कर्मसाहित्य • ३११ पचसग्रहके दूसरे भाग कर्मप्रकृतिमें चूर्णिका पर्याप्त उपयोग किया गया है मतः कर्म चूर्णि उसमे पूर्व रची जा चुकी थी । चन्द्रषि महत्तर का समय भी निश्चित नही है । किन्तु उन्होने पवसग्रहकी अपनी टीका में विशे० भाष्य से उद्धरण दिया है । अत. वे विक्रमकी सातवी शती से पहले नही हुए यह निश्चित है । उनकी उत्तराधि अभी अनिश्चित है । फिर भी इतना निश्चित है कि वे बारहवी शतीसे पहले हुए है क्योकि मलयगिरि की वृत्तिके अनुसार तो चूर्णिकी रचनाका समय वि० स० ५५०-७५० के मध्यमें जानना चाहिए । शतक कर्मग्रन्थ ( श्वे० ) - कर्मप्रकृतिमें तथा उसकी चूर्णिमें शतक नामक ग्रन्थका उल्लेख पाया जाता । जिससे प्रकट होता है कि कर्मप्रकृतिकारने कर्म-प्रकृतिकी रचना करनेसे पूर्व एक शतक नामक ग्रन्थ भी रचा था । कर्म प्रकृतिके बन्धन करण की अन्तिम गाथामें कहा है कि-''इस प्रकार 'वन्धशतक' के साथ बन्धन-करणका कथन करने पर बन्ध- विधानका ज्ञान सुखपूर्वक शीघ्र होता है ।' चूर्णिकारने चूर्णिमें कहा है कि शतकको बन्ध-शतक कहा है । मलयगिरिने अपनी टीकामें लिखा है कि इससे शतक और कर्म-प्रकृतिकी एक कर्तृकताका आवेदन किया है । चूर्णिकारने तो अपनी चूर्णिमें अनेक स्थलो पर शतकका निर्देश किया है । उदाहरण के लिए कर्मप्रकृतिके उदीरणाकरण में अनुभागोदीरणाका कथन करते हुए कर्मप्रकृतिकारने कहा है कि 'अनुभाग- उदीरणामें सज्ञा, शुभ, अशुभ तथा विपाकका कथन अनुभागवधमें जैसा कहा है वैसा जानना, जो विशेष है वह कहते है ।' उसकी चूर्णि गाथाका व्याख्यान करते हुए चूर्णिकारने कहा है कि 'बन्धशतकके अनुभागबन्धमें जैसा कहा है वैसा ही कहना चाहिए ।' अत यह बात निर्विवाद है कि कर्मप्रकृतिका बडा भाई शतक नामक ग्रन्थ है । विषय परिचय दूसरी और तीसरी गाथामें वर्णनीय विषयोंका निर्देश करते हुए ग्रन्थकारने १ 'सव्वस्स केवलिस्स वि जुगव दो नत्यि उवओगा । ( वि भा. गा ३०९६ ) । -प० स० टी० गा० ८ । २ 'एव वधणकरणे परूविए सह हि वधसयगेण । बधविहाणाहिगमो सुहमभिगतु लहु होइ ॥ १०२ ॥ चू० - 'एतमि बधकरणेसयगेणा सह परूविते 'बन्धसतग'ति सतगमेव भण्णति । टी० -- एतेन किल शतक कर्मप्रकृत्योरेककट कता आवेदिता द्रष्टव्या 'क० प्र० वन्ध०, पृ० २०३ | ३ 'अणुभागुदीरणाए सन्ना य सुभा-सुभा विवागो य । अणुभागवन्ध भणिया नाणत्त पच्चया चेमे ||४३|| चू० –'अणुभागबन्ध भणिया' त्ति -- बधसयगस्स अणुभागबन्धे भणिया तहेव, भाणियव्वा ।' क० प्र० उदी० पृ० ६३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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