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________________ ३०० : जनसाहित्यका इतिहास __ पहली गाथाके द्वारा उपशामनाके दो भेद बतलाये है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाका दूसरा नाम अनुदीर्णोपशमना भी है। (यथा प्रवृत्त, अध प्रवृत्त), अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोके द्वारा जो कर्मोका उपशम किया जाता है उसे तो करणोपशमना कहते है। और इन करणोके विना जो उपशमना होती है उसे अकरणोपशमना कहते है । वैसे उपशमनाके दो भेद है---देशोपशमना और सर्वोपशमना । उक्त दो भेद देशोपशमनाके ही है । (सर्वोपशमना तो उक्त करणो के द्वारा ही होती है)। उपशमनाके उक्त दो भेद करके कर्म-प्रकृतिकारने अकरणोपशमनाके अनुयोगधरोंको नमस्कार किया है। चूर्णिकारने उसका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि अकरणोपशमनाका अनुयोग विच्छिन्न हो गया। अत. उसको नही जानने वाले कर्म-प्रकृतिकारने उसके जानने वाले आचार्यको नमस्कार किया है। दूसरी गाथामें कहा है कि सर्वोपाशमनाके दो नाम है-गुणोपशमना और प्रशस्तोपशमना । देशापशमनाके भी दो नाम है अगुणोपशमना और अप्रशस्तोपशमना । सर्वोपशमना केवल मोहनीय कर्मकी ही होती है । इस प्रकरणमें भी चार गाथाए ऐसी है जो कसायपाहुडमें भी पायी जाती है। कर्मप्रकृतिमें उनका नम्बर२३, २४, २५, २६ है। और ये गाथाएं कसायपाहुडके दर्शन मोहोपशमना नामक अधिकारके अन्तमें आती है । चारमें से अन्तकी दो में तो कोई अतर नही है। प्रारम्भकी दो में अन्तर है उसमेंसे भी भी दूसरीमें केवल शब्दोका व्यक्तिक्रम है। हा, पहलीमें उल्लेखनीय अन्तर है। कर्म-प्रकृति (उपशमना) की गाथा इस प्रकार है सम्मत्त पढम लम्भो सब्वोवसमा तहा विगिट्ठो य । छालिगसेसा पर आसाण कोइ गच्छेज्जा ॥२३॥ इसमें बतलाया है कि औपशमिक सम्यक्त्व की प्रथम प्राप्ति मोहनीय कर्मके सर्वोपशमसे होती है तथा प्रथम स्थितिकी अपेक्षा उसके अन्तर्मुहुर्त कालका प्रमाण बडा होता है। जव उस सम्यक्त्वके कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छै भावली काल शेष रहता है तो कोई कोई जीव गिर कर सासादन गुणस्थानके चले जाते है और वहासे पुन मिथ्यात्वमें आ जाते है । यह गाथा कसायपाहुडमें इस प्रकार पायी जाती है सम्मत्त पढम लभो सव्वोपसमेण तह वियटेण । भजियन्वो य अभिक्ख सन्चोवसमेण देसेण ॥१०॥ १. 'सा अकरणोपसामणा ताते अणुओगो वोछिन्नो, तो त अजाण तो आयरिओ जाणतस्स नमोक्कार करेति' कर्मप्र उप, गा.१च.
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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