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________________ २९६ : जैनसाहित्यका इतिहास विशेषतया प्रदेशविभक्ति नामक अधिकारोके चूणिसूत्रोमैं भी उक्त विषयोंकी चर्चा है। गाथा १८-२० के द्वारा जीवके द्वारा ग्रहण योग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओका निरूपण किया है षट्खण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत वन्धन अनुयोगद्वारमें इन वर्गणाओ का कथन आया है । बन्ध योग्य वर्गणाओका कथन करनेके बाद वद्ध समयप्रवद्वका विभाग आठो मूलकर्मोको उत्तर-प्रकृतियोमें किस प्रकारसे होता है इसका विवेचन किया है। चूर्णिकारने अपनी चूणिमें प्रत्येक उत्तर-प्रकृतिके विभागका कथन विस्तारसे किया है। प्रदेशवन्ध के बाद अनुभागवन्धका कथन है । चूर्णिकारने चूर्णिमें वे सब अपने अनुयोगद्वार कुछ व्यतिक्रमसे गिनाये है जो षट्खण्डागमके वेदनाखण्ड के अन्तर्गत वेदना-भाव-विधानका कथन करते हुए बतलाये है । कर्मप्रकृति में चूर्णि निर्दिष्ट क्रमानुसार कथन किया है । तत्पश्चात् षट्खण्डागम के वेदनाभाव-विधानके अन्तर्गत जीव समुदाहारके अनुसार ही आठ अनुयोगोके द्वारा जीव समुदाहारका कथन है। गाथा ६७ का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकारने प्रत्येक प्रकृतिकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिमें उत्कृष्ट और जघन्य अनुभागके अल्पबहुत्वका विचार विस्तारसे किया है । अन्तमें लिखा है-'आदि अनादि प्ररूपणा, स्वामित्व, धातिसज्ञा, स्थानसज्ञा, शुभाशुभ-प्ररूपणा, बन्धप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणाका कथन जैसा शतकमें कहा है वैसा कह लेना चाहिए।' तत्पश्चात् स्थितिबन्धका कथन किया है। जो जीव स्थान चूलिकाके ही अनुरूप है। १ 'अनुभाग बन्धज्झवसाणस्स परूवणा कीरति । तस्स इमे अणुतोगदारा। त जहा अविभागपलिच्छेद परूवणा, वग्गणपरूवणा, (फड्डगपरूवणा), अतरपरूवणा, ठाणपरूवणा, कडगपरूवणा, छठाणपरूवणा, हेवाट्ठाण-परूवणा, समयपरूवणा, जवमज्यपरूवणा उयजुम्णपरूवणा, पज्जवसाणपरूवणा, अप्पाबहुगपरूवणत्ति ।' क० प्र० च०, पृ० ८५ । २ एत्तो अणुभागबधन्झवसाणाणदाए परूवणदाए तत्थ इमाणि बारस अणियोगद्दाराणि ॥१९७।। अविभागपडिच्छेद परूवणा, ठाणपरूवणा, अतरपरूवणा कदयपरूवणा, ओजजुम्मपरूवणा, छठाणपरूवणा, हेटाहाणपरूवणा, समयपरूवणा, वढिपरूवणा जवमज्मपरूवणा पज्जवसाणपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ॥१९८॥-पटख, पु० १२ पृ०८८॥ ३. इदाणि सादि अणादि परूवणा, सामित्त घातिसन्ना ठाणसन्ना सुभासुभपरूवणा बधतो विवागो य जहा सयगे तहा भाणियन्वा-क० प्र. चू पृ० २४६ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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