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________________ २९० : जैनसाहित्यका इतिहास शम श्रेणि नही चढ सकते । पजिकारको भी यही मत मान्य प्रतीत होता है। रचनाकाल__ जैसा कि प्रारम्भमें लिखा है, पजिकाके इस अन्त:-निरीक्षणसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिताको पट्खण्डागम सिद्धान्तका तो अच्छा ज्ञान था ही, साथ ही सत्कर्ममें वीरसेनस्वामी के द्वारा सगृहीत किये गये शेष अनुयोगोका तथा कसायपाहुडका भी अच्छा ज्ञान था और उनकी लेखन शैली भी वीरसेन स्वामीसे निम्न स्तरकी नही थी। फिर भी उसे हम वीरसेनस्वामीकी समकक्षता तो नही ही दे सकते । हाँ, जयधवलाको पूर्ण करनेवाले जिनसेन की समकक्षता अवश्य दे सकते है । इससे ऐसा लगता है कि यह पंजिका वीरसेनके ही किसी शिष्य या प्रशिष्यके द्वारा रचित हो सकती है । पंजिकामे उद्धरण भी दो तीनसे अधिक नही है। उनमें तीन गाथाएँ तो कसायपाहुडकी है उनके साथमें कसायपाहुडगाथासुत्त' लिखा हुआ है । एक गाथा ऐसी है जो दिगंबर प्राकृत पचसंग्रह की है । अत इन उद्धरणोसे भी हमरे उक्त अनुमानको कोई बाधा नहीं आती है । प्रक्रम अनुयोगके अंत में अल्प-वहत्वका प्रतिपादन कर के वीरसेन स्वामीने 'एसोणिक्खेवाइरिय उवएसो' लिखकर उसे निक्षेपाचार्य उपदेश बतलाया है उसकी पजिकामें पजीकारने लिखा है-स्थिति-अनुभागोमें प्रक्रमित कर्मद्रव्यका अल्पबहुत्व तो ग्रन्थ सिद्ध होनेसे सुगम है इसलिए उसका कथन न कर के स्थितिनिषेक प्रति प्रक्रमित अनुभागका अल्पबहत्व निक्षेपाचार्यने ऐसा कहा है। और लिखकर निक्षेपाचार्यका कथन बतलाया है फिर उसकी उपपत्ति भी पजिकाकारन दा हैं उनका यह सव प्रतिपादन दो पृष्ठसे भी अधिक है। अन्तमें लिखा हैइसप्रकार स्थितिके अनुसार अनुभाग अनतगुण हीन रूपसे वधको प्राप्त होते हैं यह निक्षेपाचार्यके वचन सिद्ध हुए' पश्चात् 'सेसाइरियाणमभिप्पायेण' लिखकर शेष आचार्योका अभिप्राय बतलाया है। इससे प्रकट होता है कि वीरसेनस्वामीन जिस निक्षेपाचार्यके उपदेशका उल्लेख किया है. पजिकाकार उसके उपदेशसे भी अच्छी तरह सागोपाग परिचित थे। जगह-जगह पजिकामें अपने कथनके समर्थनम १. पु १५, पृ ४०। २ 'पुओ हिदि-अणुभागेसु पक्कमिदकम्मदव्वस्स अप्पाबहुग गंधसिद्ध सुगममिदि तमरू विय पुणो ठिदिणिसेयप्पडि पक्कमिगाणुभागस्सघाबहुग णिक्खेवाइरियेण एव परूविंद' - - स प. पृ १४ । ३. 'एव ठिदिअणुसारेण अणु भागा अणत गुणहीणसरूवेण वज्जति ति णिक्खेवाइरियवयण सिद्ध-सं पं, पृ १७ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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