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________________ जयधवला-टीका . २८३ प्राचीन व्याख्याको सम्यक्पसे लिखा था। इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है। ___ इद्रनन्दिने जहाँ अन्य टीकाकारोके लिये 'रचितानि' रचिता, 'व्याख्यामकृत्' 'विरचितवान्', जैसे रचनापरक शब्दोका प्रयोग किया है वहाँ अकेले वप्पदेवके लिये 'व्यलिखत्' शब्दका प्रयोग किया है। यह भी अभिप्राय निकल सकता है कि वप्पदेवने किसी पुरातन व्याख्याको प्राकृत भाषामें लिखा हो और ऐसी स्थितिमें तुम्बुलूराचार्यके द्वारा कर्नाटक भाषामें रची गयी महती चूडामणि व्याख्या की ओर ही दृष्टि जाती है। क्योकि वही सबसे विशाल टीका थी और पुरातन भी थी। धवला टीकामें तो वप्पदेव और उनकी किसी टीकाका संकेत तक नही है । किन्तु जयधवलामें वप्पदेवके द्वारा लिखित उच्चारण-वृत्तिका निर्देश मिलता है। यह उच्चारण-वृत्ति यतिवृषभके चूणिसूत्रोपर थी। वीरसेन स्वामीने भी वप्पदेवके साथ 'लिहिद' ( लिखित) शब्दका ही प्रयोग किया है, साथ ही उन्होने अपने द्वारा लिखी हुई उच्चारणाका निर्देश किया है। किन्तु वीरसेन स्वामीने यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोपर कोई उच्चारण-वृत्ति रची थी, इसका कोई उल्लेख नही मिलता ऐसी स्थितिमें 'रचित'के स्थानमें 'लिखित' शब्दका प्रयोग अवश्य ही कुछ विशेष अर्थ रखता है । धवला टीकासे इस वातका कोई आभास नही मिलता कि वीरसेन स्वामीके सामने धवला टीका लिखते समय षट्खण्डागम सूत्रोकी कोई टीका उपस्थित थी । परिकर्मका उपयोग तो उन्होने किया है। किन्तु यह नही लिखा कि यह सूत्रोका व्याख्या-ग्रन्थ है। इस परिकर्मके सिवाय अन्य किसी ऐसे ग्रन्थका या ग्रन्थसम्बन्धी सकेतका विवरण नही मिलता जिसे व्याख्या ग्रथ कहा जा सकता है। दो स्थलोपर उन्होने 'केसु वि सुत्तपोत्थएसु'२ लिखकर यह सूचित किया है कि उनके सामने षट्खण्डागम सूत्रोकी अनेक प्रतियाँ थी, जिनमें कुछ पाठ भेद थे। किन्तु व्याख्या पुस्तकोके सम्बन्धमें इस प्रकारका कोई उल्लेख हमारे देखने में नही आया । हाँ, अपने कथनकी पुष्टि करते हुए उन्होने 'आचार्य परम्परासे आगत उपदेशसे ऐसा जाना' या 'सूत्रसे अविरुद्ध आचार्यवचनसे ऐसा जाना' इस प्रकार १ 'चुण्णि सुत्तम्मि वप्पदेवाइरियालिहिदुच्चारणा ए च अतोमुहुत्तमिदि भणिदो। अम्हे लिहिदुच्चारणाए पुण- क पा, भा. ३, पृ. ३९८ । २ षट्ख , पु ८, पृ ६५ । पु. १४, पृ १२७ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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