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________________ जयववला-टीका . २७३ सम्गत' था अनेक व्यास्याकारोने अपनी व्यायामका उसे आधार बनाया था अथवा उराको साहायता लेकर अपनी व्यारयाएं लिखी थी । धवलाकार श्रीवीरसेन स्वामीके राम्मुख वह मौजूद था और उन्होंने भी उसका सहाप्य ग्रहण किया था। अत. इन्द्रनन्दिने पट्यण्टागमके आय तीन सण्डोपर परिकर्म नामक ग्रन्थकी रचना करनेका निर्देश किया है वह यथार्य प्रतीत होता है यहां एक बात विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । इन्द्रनन्दिने परिकम ग्रन्यको पद्धति, व्यास्या, टीका आदि शब्दोंसे नही कहा है जबकि अन्य व्याख्यात्मक ग्रन्योको इन शब्दोसे अभिहित किया है। इससे प्रकट होता है कि यद्यपि परिकर्म ग्रन्योका आधार पट्सण्डागम सूत्र थे किन्तु वह केवल एक व्याख्यारूप अन्य नही था । धवलाके उद्धरणोसे भी इसी वातका समर्थन होता है। इन्द्रनन्दिने परिकर्मका रचयिता पानन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दको वतलाया है। आचार्य कुन्दकुन्द दि० जैन परम्पराके एक ख्यात नाम प्राचीन आचार्य थे । उनके द्वारा रचित ग्रन्थोकी भाषा प्राकृत है और परिकर्म भी प्राकृत भापामें हो रचा गया था यह वात उसके उद्धरणोसे प्रमाणित होती है । किन्तु कुन्दकुन्दके सभी उपलब्ध अन्य गाथावद्ध है, जबकि परिकर्म गद्य प्राकृतमें रचा गया प्रमाणित होता है । इसका कारण परिकर्मका व्याख्यात्मक होना सम्भव है । जैसे आचार्य यतिवृपभने कसायपाहुडपर चूणिसूत्रोंकी रचनाकी थी शायद उसी तरह कुन्द कुन्दने पट्खण्डागमके आधारपर परिकर्मसूय नामक ग्रन्थकी रचना की थी। उससे धवलाकारने एक उद्धरण इसप्रकार दिया है ____ अपदेस णेवइदिए इ दिए गेज्झ' इदि परमाणूण मिरवयवत्त परियम्मे वुत्ता' पु १३, पृ १८ अपदेसणेव इदिए गेज्झ' यह उद्धरण गाथाका अश प्रतीत होता है। कुन्दकुन्दके नियमसारको एक गाथाका जो परमाणका स्वरूप वतलाती है द्वितीय चरण 'णेव इ दिए गेज्म' है किन्तु उसके पहले जो 'अपदेस' शब्द है वह उसमें नही है । अत सम्भव है कि जिस गाथाका उक्त अश है वह गाथा नियमसार वाली गाथासे भिन्न हो। किन्तु उससे दो वातें प्रमाणित होती है, प्रथम परिकर्ममें गाथाओका अस्तित्व और दूसरे परिकर्मका कुन्दकुन्द रचित होना। पचास्तिकायके अग्रेजी अनुवादकी अपनी प्रस्तावनामें डा० चक्रवर्तीने तथा प्रवचनसारकी अपनी प्रस्तावनामें डा० ए० एन० उपाध्यायेने कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम शती सुनिश्चित किया और नन्दिसघकी पटटवलीके आधार पर १ 'अत्तादि अत्तमज्य अत्त त णेव इ दिए गेज्य। अविभागी ज दव्व त परमाण, विजाणीहि ।।६।।'
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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