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________________ जयधवला-टीका २७१ 'गौणमुख्ययो मुख्य सप्रत्यय इति न्यामात् । ण च वादगणं गामण्णेण वुत्तकालो वादरेगदेगाण बादर पुढविकाइयाण पि सोचेव होदि त्ति, विरोहा।'-पु० ४, पृ० ४०३। ___कोई आचार्य 'कर्मस्थितिसे वादर स्थिति परिकर्ममें उत्पन्न हुई है। इसलिए कार्यमे कारण उपचार करके बादर स्थिति की ही कर्मस्थिति मज्ञा मानते है । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योकि 'गीण और मुख्यमें मे मुख्यका ही ज्ञान होता है' ऐसा न्याय है। तथा वादरोका मामान्य म्परो कहा हुमा काल वादरोंके एक देश बादर पृथिवीकायिको का भी, वही ही नहीं हो सकता, क्योकि इसमें विरोध आता है।" ग्वुद्दावन्धमें भी उक्त चर्चा 'उपकस्सेण कम्मट्ठिदी ।।७७॥' सूत्रकी व्यख्या आयो है । और जीवट्ठाणके कालानुगममें भी 'उपकस्सेणाम्मट्ठिदी ॥१४४।। सूत्रकी व्याख्यामें उक्त चर्चा निबद्ध है। उक्त चर्चामे प्रकट होता है कि परिकर्ममें वर्णित वादरस्थिति 'कर्मस्थिति' से उत्पन्न हुई है । अर्थात् पट्खण्डागमके सूत्रमें आगत 'कर्मस्थिति' शब्दसे ही परिकर्मगत वादरस्थिति उत्पन्न हुई है। अत यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि पटखण्डागम सूत्रोके आधार पर ही परिकर्म रचा गया किन्तु एक उद्धरणसे पटवण्डागमसे परिकर्ममें कही कुछ मतभेद भी प्रतीत होता है। यही चर्चा जीव ढाणके कालानुगममें एक जीवको अपेक्षा वादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति बतलानेवाले सूत्र ११२ की धवलामें भी आयी है । लिखा है कम्मट्ठिदी मावलियाए असखेज्जदि भागेण गुणिदे वादरद्विदी जादा ति परियम्म वयणेण सह एद सुत्त विरुज्झदि त्ति दस्स ओक्खत्तं, सुत्ताणुसारि परियम्मवयण ण होदि ति तस्सेव ओक्खत्तप्पसगा।'-पु० ४, पृ० ३९० । ___'कर्मस्थितिको आवली के असख्यातवे भागसे गुणा करनेपर वादर स्थिति उत्पन्न हुई है परिकर्मके इस वचनके साथ यह सूत्र विरुद्ध पडता है इसलिए इस सूत्रको अवक्षिप्तताका प्रसग नही आता । किन्तु परिकर्मका वचन सूत्रानुसारी नही है इसलिए परिकमंकी ही अवाक्षिप्तताका प्रसग आता है।' यहां हम यह स्पष्ट कर देना उचित समझते है कि उक्त चर्चामें जो परिकर्मके वचनको सूत्रानुसारी नही होनेके कारण अवक्षिप्तताका प्रसग दिया है। इसीका परिहार खुद्दाबन्धकी धवलाके उक्त उद्धरणके अन्तमें वीरसेनस्वामीने ही स्वय कर दिया है । उन्होने लिखा है 'वहाँ ( परिकर्ममें ) यद्यपि सामान्यसे 'वादरस्थिति होती है ऐसा कहा है तथापि पृथिवीकायादि बादरोमेंसे प्रत्येकको कायस्थिति लेनी चाहिये क्योकि सूत्र
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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